कोई नाम न दो – भाग-3

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अर्चना ने भजन प्रारंभ कर दिया। सुमधुर कंठ की मनोरम वाणी ने अविनाश का हृदय तुरंत ही खींच लिया। वह सपनों में खो गया। आँखें बंद थी, किंतु कान सुन रहे थे और सुसुप्त मस्तिष्क भजन के समस्त चित्रण को जीता-जागता देख रहा था। मिसिर जी भी आदत के अनुसार बहुत गंभीर होकर भजन का स्वर्गिक आनंद ले रहे थे। भजन खत्म होने को था। आखिरी पंक्ति के अंत होते-होते अविनाश की बंद आँखों से बहते आँसू का एक कतरा टप से उसके पैजामे पर आकर गिर पड़ा और रूखे बालों की एक लट ने अनायास ही उसके भीगे कपोल का चुंबन ले लिया।

“बाबा अविनाश बाबू के आँसू …।”भावावेश में भजन खत्म करके ज्यों ही अर्चना ने अविनाश पर उसके भावों को पढ़ने के लिए अपनी दृष्टि डाली तो एकाएक न जाने क्यों उसका ह्रदय उसके गिरते हुए आँसू को देखकर विचलित हो गया और उसके मुँह से अभी कुछ और निकलने को ही था कि वह कुछ सोचकर चुप हो गई और दृष्टि नीचे करके बैठ गई।

“अविनाश बेटे,” मिसिर जी ने धीरे से पुकारा।
अविनाश की सुबकाई ने प्रश्न का उत्तर दे दिया।

मिसिर जी और अर्चना दोनों ही खामोश बैठे रहे। मिसिर जी तो निरंतर अविनाश के चेहरे पर चढ़ने-उतरने वाले भावों को देख रहे थे किंतु लज्जावश अर्चना छिपी दृष्टि से अविनाश को देख लेती और फिर पल भर में ही अपनी दृष्टि नीचे झुका लेती।

“क्या भजन खत्म हो गया?” अविनाश ने आँखें खोलीं और आश्चर्य से पूछा।
“वह तो न जाने कब का खत्म हो गया” मिसिर जी बोले।
“कब का खत्म हो गया…” अविनाश बुदबुदाया।
“क्यों तुम्हें आश्चर्य कैसा?”

“मेरे तो कानों में उसकी मधुर ध्वनि अभी तक गूंज रही है। लग रहा है कि भजन अभी तक हो रहा है। बाबू जी वास्तव में अर्चना का गला इतना मधुर है, इतना मधुर है कि उसकी तारीफ शब्दों में नहीं की जा सकती। बहुत प्यारा भजन है, बहुत प्यारा। जीवन में पहली बार मैंने इतने मधुर कंठ की आवाज में इतना मार्मिक भजन सुना है। सचमुच मैं धन्य हो गया।”
“मैंने तो तुमसे कहा था।” मिसिर जी ने गर्वयुक्त अंदाज में कहा।

“जी मगर उस वक्त जितना विश्वास नहीं हुआ था, ठीक उतना ही विश्वास अब नहीं हो रहा है यह सोचकर कि आपने तारीफ कम की थी। इसकी तो जितनी तारीफ की जाए उतनी थोड़ी है।”

“लेकिन बेटे, एक बात कहूँ।”
“जी जरूर।”
“तुम्हारी आँखों में आँसू कैसे आ गए?”
“आँसू आ गए?” अपने चेहरे को दोनों हाथों से पोंछते हुए अविनाश ने पूछा।
“ठहरिए तौलिया लाती हूँ।” कहते-कहते अर्चना एकदम अपनी भूल को समझ कर ठिठक गई।
“नहीं, तौलिए की जरूरत नहीं है।”
“बेटा मगर यह आँसू आए क्यों? हमसे भी छिपाओगे?”
“बाबू जी आँसू….जब कभी मेरे अंतःकरण को कोई बहुत मधुर भाव छू लेता है तो यह आँसू बाहर आ जाते हैं।”
“तुम्हारा दर्द जाग उठता है क्या?”
“नहीं, यह आँसू खुशी के होते हैं, गम के नहीं।

इस भजन के भाव और अर्चना की आवाज दोनों ही मुझे एक ऐसे संसार में ले गई थी जहाँ प्रसन्नता ही प्रसन्नता थी। आनंद ही आनंद था और मैं अपने आप को पूर्णरूपेण स्वतंत्र महसूस कर रहा था। मेरी आत्मा स्वतंत्र पक्षी की भांति निर्विरोध इधर-उधर घूमने लगी थी, किंतु ज्यों ही पृथ्वी की शुष्क चट्टान पर मेरी कल्पना ने पैर रखा, दिल में एक टीस उठी और यह आँसू बह चले। वरना इनके बहने की कभी कोई आवश्यकता ही नहीं पड़ती। जब कभी गम के बादल घिर आते हैं और उनसे जूझते-जूझते मैं थक जाता हूँ तो खामोश आँसुओं को थाम, अपनी जन्मदायिनी के चित्र के समीप खड़ा होकर शक्ति और साहस की भीख माँगता हूँ और पल भर में ही बाबा न जाने मेरे अंतःकरण में कहाँ से एक अद्भुत स्फूर्ति पैदा हो जाती है। मेरी आँखें दिव्य ज्योति के प्रकाश से चकाचौंध हो जाती हैं। अँधेरे रास्ते साफ दिखने लगते हैं और मैं सफ़र को चल पड़ता हूँ।चलते-चलते फिर न तो थकान का पता चलता है और न कष्टों के सायों का भय करीब आता है। माँ का निर्मल स्वरूप, ज्योतिर्मय आँखें और उत्साही आवाज मेरे बदन के एक-एक अंग को छू लेती है और मेरे लिए जीवन एक खुशनुमा तराना बन जाता है। जीवन की हर आस सात सुरों में लहराते संगीत की भाँति मेरे सम्मुख होती है। बाबू जी मुझे कितना आनंद मिलता है, इसे मैं बता नहीं सकता। माँ का प्यार कितना अटूट होता है, कितना बलवान होता है, बाबू जी मैं तभी समझ पाता हूँ। प्रेम की प्रेरणा ही जीवन का श्रृंगार होती है और जीवन का हर कर्म उसी प्रेरणा का भूखा है, भूखा रहता है।”

“अविनाश तुम्हारे विचार कितने नेक और उत्तम हैं। तुम देवता हो। जिसने तुम्हें जन्म दिया- सचमुच वह नारी तर गई, जो तुम्हारी माँ बनकर गौरवान्वित हुई।”
“बाबू जी खाना तैयार है।” आते हुए अलगू ने कहा।
मिसिर जी ने घड़ी देखी। नौ बजने को थे। बोले, “अविनाश बाबू भोजन किए जाओ।”
“बस बाबू जी फिर कभी करूँगा।”
“कर भी लीजिए।” अर्चना ने भी दबाव डाला।
अविनाश अपनी विवशता की कहानी और अधिक न कह सका। चुपचाप उठा और दोनों के साथ अंदर चला गया।
●●●

उस दिन के बाद कितने ही दिन गुजर गए। न तो अविनाश डिनर के लिए मिसिर जी के घर गया और न ही अर्चना को पढ़ाने के लिए। मिसिर जी और अर्चना प्रतिदिन सुबह से शाम तक अविनाश के संदेश की प्रतीक्षा करते। शाम ढलते उनकी प्रतीक्षा मायूसी में बदल जाती।
एक दिन मिसिर जी नित्य की भाँति शाम को बाहर बारामदे में बैठे प्रकृति का आनंद उठा रहे थे। तभी नगर कमेटी के एक वरिष्ठ सदस्य घर आते दिखाई दिए। मिसिर जी ने उनके प्रवेश करते ही आवाज लगाई।

“अरे आइए सिंह साहब।”
“प्रणाम दादा” सिंह साहब ने पास आकर उनके चरण स्पर्श किए।
“कैसे आना हुआ?”

“दादा बात ऐसी है कि शहर के जाने-माने लोगों ने एक कवि गोष्ठी का आयोजन किया है। दूर-दूर से युवा कवि और कवियत्रियाँ आने को हैं। कवि गोष्ठी का मुख्य लक्ष्य है हास्य और विशुद्ध मनोरंजन। संगठन कमेटी के एक सदस्य ने कवियों की सूची बनाते समय अविनाश के नाम की भी चर्चा की। उससे शहर के अधिकतर लोग अभी तक अपरिचित ही थे। अतः जब पहली बार लोगों को यह मालूम हुआ कि उनके शहर में ही एक युवा कवि निवास करता है तो उनकी बांछें खिल गईं और सभी एकमत होकर उसको भी आमंत्रण देने के लिए जोर डालने लगे। कुछ एक-दो सदस्य जो थोड़ा बहुत अविनाश के बारे में जानते थे, उन्होंने आपत्ति करते हुए कहा कि वह एक गंभीर कवि है। उसकी लेखनी हास्य-व्यंग नहीं लिख सकती। उसकी कलम में शक्ति है किंतु दर्द भरी। उसको यहाँ बुलाना कुछ असामयिक-सा होगा। किंतु दूसरों ने विरोधियों की इन आपत्तियों का विशेष खंडन नहीं किया। उन्होंने केवल इस आधार पर कि अविनाश कुछ भी हो- उनके अपने शहर का है और कवि ह्रदय रखता है और अपने शहर में कवि गोष्ठी हो और अपना ही कवि अनुपस्थित रहे, यह न्यायसंगत नहीं। उसे जरूर भाग लेने दिया जाएगा। अंततोगत्वा यह निश्चय कर लिया गया कि अविनाश को कवि गोष्ठी में भाग लेने के लिए आमंत्रण भेजा जाएगा। किंतु आमंत्रण लेकर कौन जाएगा यह भी एक समस्या थी। इस पर नगर प्रमुख ने स्वयं यह कार्य अपने ऊपर ले लिया। क्या यह ठीक होगा?”

“सिंह साहब आपने बहुत उत्तम निर्णय लिया है। अविनाश बेटा समान है। बड़ा सरल स्वभाव है उसका। कोई समस्या हो तो बताइएगा मैं साथ चलूँगा।”

“यही आशीर्वाद आपसे चाहते थे” सिंह साहब ने कहा और उठकर चल दिये।

●●●
अगले दिन शाम होते-होते नगर प्रमुख अपने व्यस्त कार्यक्रम से कुछ समय निकालकर अविनाश के छोटे से मकान पर पहुँचे। अविनाश नित्य की भाँति अपने कुर्ते, पैजामे में, बिखरे बाल किए किसी पुस्तक में मग्न था। किंतु एकाएक उसके अपने ही फाटक पर किसी गाड़ी के रुकने की आवाज सुनकर वह चौंककर बाहर की ओर देखने लगा। उसने उन्हें पहले कभी नहीं देखा था और न ही नगर प्रमुख को उसके दर्शन करने का इससे पहले सौभाग्य प्राप्त हुआ था। आगंतुक को अपने ही बारामदे तक आता देखकर अविनाश चिंतित-सा हो गया। किंतु निश्चल बैठा देखता रहा। सोच रहा था कि कहीं वह भूल से मेरे घर की ओर तो नहीं आ रहे हैं।
आगंतुक ने करीब आते हुए पूछा, “यहाँ मिस्टर अविनाश रहते हैं।”

“जी कहिए मैं ही हूँ अविनाश।”
“आप हैं, प्रणाम भाई अविनाश जी।”
“आइए बैठिए।” दूसरी कुर्सी को खींचते हुए अविनाश बोला।
“जी, मगर बैठने से पहले मैं आपको अपना परिचय तो दे दूँ।”
“वह तो मिल ही जाएगा।” बड़े सरल स्वभाव से अविनाश ने कहा।
“मुझे राजबहादुर सिंह कहते हैं। मैं इस शहर के नगर प्रमुख की हैसियत से जनता की सेवा में रत हूँ।”
“बस-बस यही जान लेना काफी है। मेरा सौभाग्य है कि आप मेरे ठिकाने तक आए।”
“क्या सेवा करूँ आपकी?”
“अविनाश बाबू हम आपसे कुछ भिक्षा माँगने आए हैं।”
“कहिए सिंह साहब, क्या हुक्म है?”

“अविनाश बाबू यह मेरा दुर्भाग्य ही समझिए कि मुझे आज तक यह नहीं मालूम हो सका कि हमारे शहर में भी प्रतिभा कुसुम मुस्कुरा रहा है। यह तो आज के दिन की देन है कि मुझे यह मालूम हो सका कि आप जैसा उच्च कोटि का कवि हृदय भी स्वयं हमारे शहर में हमारे बीच है और हम….।”

“बस कीजिए सिंह साहब आप तो मुझे बहुत अधिक शर्मिंदा कर रहे हैं।”
“अविनाश बाबू क्षमा का पात्र मैं हूँ आप नहीं। नगर प्रमुख की हैसियत से मुझे शहर के चप्पे-चप्पे के बारे में मालूम होना चाहिए था। किंतु यह मेरी नाकाबिलियत ही है जो आप जैसे कुसुम को भी मैं नहीं जान सका, चप्पों की कौन कहे? सच तो यह है कि मैं इस पद के योग्य ही नहीं हूँ। खैर अविनाश बाबू आपसे हमारी एक अर्ज है।”

“कहिए श्रीमान्।”
“हमारे शहर में काव्य-गोष्ठी का आयोजन किया गया है। देश के कोने-कोने से चुने हुए कवि आ रहे हैं। हम चाहेंगे कि आप भी चलकर हमारी गोष्ठी को आशीर्वाद दें और शहर की प्रतिभा को ऊँचा करें।”

“मैं चलूँ?” विस्मय से अविनाश ने पूछा।
“जी हाँ, देखिए निमंत्रण अस्वीकार न कीजिए।”
“लेकिन श्रीमान् देश के चुने कवियों के सम्मुख मेरी प्रतिभा क्या होगी? फिर मेरे पास कोई ऐसा गीत भी नहीं है जिसके द्वारा मैं श्रोताओं का हास्यपूर्ण विनोद कर सकूँ।”

“कवि हृदय को गीत गाने में क्या देर लगती है अविनाश बाबू।”
“मगर मैं उस श्रेष्ठता पर नहीं हूँ।”

“यह तो आप समझते हैं। आज आप केवल हमारा निमंत्रण स्वीकार कर लीजिए। बहुत उम्मीद लेकर आए हैं हम।”
“सिंह साहब, माना कि मैं कुछ भी सुनाऊँ और उसमें हास्य का पुट हो- मैं यह नहीं कह सकता। मैं हँसता हूँ। कभी नहीं रोता….मगर जब लिखता हूँ तो मेरे शब्द न रोते हैं और न ही हँसते हैं। वह हमेशा गंभीर रहते हैं, इतने गंभीर और….।”
“अविनाश बाबू हमें मंच पर आपको देखना है, आपके गीतों को अपने कानों से सुनना है। वह कैसे भी हों… इसका निर्णय आप अभी से क्यों करते हैं?”

“सिंह साहब अगर आपकी इतनी ही इच्छा है तो मैं आ जाऊँगा और जो कुछ भी गा सकूँगा….जो कुछ भी सुना सकूँगा, सब अर्पित कर दूँगा।”
“अविनाश बाबू हम बहुत आभारी रहेंगे आपके इस एहसान के लिए, किंतु अभी भी एक बात रह गई है।”
“कहिए, वह भी कह डालिए।”
“हम आपकी सेवा में छोटी-सी भेंट ही दे सकेंगे।”
“आपने बहुत कुछ दे दिया। क्या अभी भी कुछ बाकी रह गया है? इतना सम्मान और इतना प्यार आपने मुझे दे दिया है, क्या यही कुछ कम है?”
“अविनाश बाबू यह तो आपका अधिकार है।”
“तो बस मुझे आप इसी अधिकार का आनंद लेने दीजिए।”
“आप सचमुच देवता हैं। अभी तक तो केवल सुना ही था, आज प्रत्यक्ष देख भी लिया है।अविनाश बाबू सच है देव तुल्य मानव एक कल्पना नहीं वास्तविकता है।”
“आप तो मुझे बहुत शर्मिंदा कर रहे हैं।”

“अविनाश बाबू हीरे को अगर हीरा कह दिया जाए तो वह हीरे को शर्मिंदा करना नहीं कहा जाता। हाँ, हीरा खुद अपनी कीमत नहीं जानता। खैर। काफी समय हो गया है। आज्ञा दीजिए। हम सब कल आपकी प्रतीक्षा करेंगे। देखिए आप निःसंकोच कोई भी अपनी लिखी कविता सुनाइएगा किंतु आना न भूलिएगा। नगर के स्वाभिमान और प्रतिष्ठा का प्रश्न है।”
“जरूर, जरूर, आपसे वायदा कर दिया है न।”
“अच्छा, नमस्कार।”
“नमस्कार।”
कहते-कहते अविनाश ने अपना हाथ बढ़ाया। नगर प्रमुख चले गए। अविनाश पुनः कुर्सी पर बैठ गया।
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राज बहादुर सिंह के जाने के बाद कुछ देर तक अविनाश बिना किसी प्रयोजन के ऐसे ही खड़ा संध्या परी को निहारता रहा। चारों ओर शांति का विशाल साम्राज्य फैलता जा रहा था। वृक्ष और लताएँ मूक बंदियों की भाँति ऐसे सहमी खड़ी थीं, जैसे शत-शत जन किसी विजेता द्वारा जीते जाने और बलात बंदी बनाए जाने पर खामोश हाथ बाँधे खड़े रहते हैं। पवन का वेग स्थिर था। विस्तृत नभमंडल की हर दिशा नीलिमा में सजी रात्रि दुल्हन से मिलने को उद्यत थी, किंतु अभी तक एक दिशा लालिमा लिए अपने वैरागी मन की गाथा धीरे-धीरे कहती जा रही थी। इस शांति को चीरते हुए कहीं दूर से किसी लोहे के घंटे की तेज आवाज अविनाश कानों में पड़ी। ‘छः बज गया’ होंठों में बुदबुदाया और तेजी से कमरे के अंदर चला गया।
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सरकते-सरकते अगला दिन आ गया। सुबह से शाम हो गई। जैसे-जैसे रेशमी शाम करीब आती अविनाश की बेचैनी बढ़ती जाती। शाम ढलान के अंतिम पड़ाव पर थी। वह उठा बिजली के बटन को दबाया। कमरे में प्रकाश फैल गया। खिड़की की मुंडेर पर रखे गंदले से शीशे में अपने रूखे बालों को देखकर लापरवाही से एक किनारे समेटा। कुर्ता-पैजामा बदला। फिर कुछ अपनी लिखी हुई डायरियों के पन्ने पलटने लगा। किसी पन्ने पर वह पल भर के लिए रुक जाता, फिर न जाने क्या सोचकर वह आगे के पन्ने पलटने लगता। “क्या सुनाऊँगा” उलझन में फिर होंठ बुदबुदा उठे, मगर कौन सुनने वाला था उसके शब्दों को। कमरे की पीली रंग से पुती दीवारों ने मानो मौन किंतु कटाक्ष रूप में धीरे से अपना सिर हिला दिया।
हवा का एक हल्का-सा झोंका आया और अविनाश के बालों को बिखराकर चला गया।
“माँ” एकाएक ख्याल आया और फूलों की माला से ढकी फोटो के पास वह खिसक आया। “क्या बोलूँ” मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा। प्रेरणा दो माँ।
हवा का एक और झोंका आया। चित्र के नीचे रखा टिमटिमाता चिराग गुल हो गया। एक प्यारी-सी ममता भरी छवि उसके सामने से गुजर गई। वह उसमें चिपट गया। ‘माँ’ पल भर बाद जब आँखें खोली तो धीरे से सिर को चारों ओर घुमा कर देखा- कुछ भी नहीं था, सब कुछ एक सपना था। वह उठा, बालों को हाथों से पीछे किया और धीरे-धीरे कमरा छोड़कर बाहर सड़क पर आ गया।
कितने ही जाने और पहचाने, अनजाने और बेगाने लोग चल रहे थे सड़क पर। जो जानते थे उसे, नमस्ते करके आगे बढ़ जाते। जो नहीं जानते थे, वे दोनों के अभिवादन का आदान-प्रदान देखने के खातिर गर्दन घुमाते और उड़ती नजर से चेहरों को देखते आगे बढ़ जाते।
शायद सभी कवि गोष्ठी में जा रहे हैं। यह सोचकर वह फिर पशोपेश में पड़ जाता “आखिर मैं क्या सुनाऊँगा?”
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विचारों की उथल-पुथल में रास्ता कट गया। किसी तरह वह कवि गोष्ठी स्थल तक आ गया। कितनी रौनक थी। फिल्मी गीतों की धुनें लाउडस्पीकर पर जोर-शोर से प्रसारित हो रही थीं। जगह-जगह झुंड में खड़े लोग गपशप कर रहे थे। सभी की अलग-अलग मंडलियाँ बनी हुई थीं। लड़के लड़कों में, लड़कियाँ लड़कियों में और बुजुर्ग मर्द-औरतें अपने-अपने समूहों में वाद-विवाद कर रहे थे। कोई किसी के तारीफ के पुल बाँध रहा था तो कोई किसी के। अविनाश चुपचाप गोष्ठी स्थल के पास घनी झाड़ियों के पास खड़ा हो गया। आते-जाते लोगों और उनके चेहरों पर चढ़ते-उतरते भावों को देखने में तल्लीन हो गया। उसके पीछे ही नव यौवनाओं का एक समूह खड़ा अपनी बातों में मस्त था, किंतु अविनाश को इसकी कोई खबर नहीं थी। अचानक एक नव यौवना की आवाज उसके कानों में पड़ी और उसका ध्यान उनकी बातों पर चला गया। वह कह रही थी- “सुना है अबकी एक नए कवि को भी आमंत्रित किया गया है।”
“कौन?” दूसरी ने पूछा।
“नाम तो मुझे भी नहीं मालूम, हाँ यह अवश्य है कि अपने ही शहर का है।”
“सच, अपने शहर का है?”
“हाँ और यह भी सुना है कि बहुत अच्छे गीत कहता है। बड़ा रस है उसके गीतों में।”
“आई सी, सो स्वीट, तब तो उससे हम लोग जरूर मिलेंगी।”
अविनाश ने पीछे मुड़कर देखा। एक बड़ा-सा झुंड आपस में नए कवि की बातों में मस्त था। अभी वह पीछे ही देख रहा था कि बगल से एक और झुंड गुजरा।
“अरे आज अविनाश जी भी आ रहे हैं” एक ने कहा।
बिजली की तेजी से अविनाश ने मुड़कर देखा। किसी ने कहा-
“हूँ, बड़ा बोर करते हैं। एक बार उन्हें सुना था। हिश मैं तो बाहर चली आई पंडाल के। सच एकदम बोरिंग। पता नहीं उन्हें बुलाया किसने।”
“अरी जा”दूसरी ने कहा। “उन्हें समझ तो देख कितना दर्द है, कितनी मिठास है उनके गीतों में। जब गाते हैं तो लगता है न जाने कितनी गहराई और सच्चाई लेकर गा रहे हैं। उनका चेहरा इतना प्यारा है कि जी चाहता है उनसे कह दूँ….।”
“बहुत आगे बढ़ रही है बस कर” दूसरी ने कहा।
अविनाश की आँखें भर आईं। कितना विरोधमय है उसका अपना जीवन। जिस विवाद से वह बचना चाहता है, वह उसे पग-पग पर घसीट कर ला रहा है। वह नहीं चाहता स्वयं को विवाद को समर्पित करना। मगर उसकी बोली के हर शब्द, उस पर उठने वाली हर नजर….उसके लिए विरोधाभास का पैगाम लाती है।
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“अविनाश बाबू नमस्कार।”
“नमस्कार शुकुल जी नमस्कार।”
“आप यहाँ कैसे?”
“बस सोचा कि चलूँ जरा शहर की हलचल भी देख लूँ।”
“आपका प्रोग्राम नहीं है क्या?”
“विचार तो नहीं है।”
“ठीक ही है। अभी और मंज लो। मज़ाक बनने से क्या फायदा?”
“जी हाँ।”
“फिर यहाँ देश के चुने कवि आएँगे, जिनके सम्मुख आपका नाम बहुत फीका लगेगा।”
“जी हाँ।”
“और यह आप जानते ही हैं कि एक बार अगर पब्लिसिटी फ्लॉप कर गई तो फ्यूचर कैरियर का क्या होगा?”
“जी हाँ।”
“आइए चले बैठें।”
“चलिए आप, मैं आ जाऊँगा। अभी तो देर है।”
“अच्छा।”
“नमस्कार।”
“वाह री दुनिया, वाह री किस्मत….बड़े निराले तेरे खेल।” बुदबुदाते हुए अविनाश अनायास ही मुस्कुरा उठा।
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“मास्टर साहब नमस्ते” दूर से कुछ छोटे बड़े बच्चों की मिली-जुली आवाज ने अविनाश को चौंका दिया।
“नमस्ते।” पास आते बच्चों के स्वागतार्थ अविनाश ने कहा, “कहो भाई?”
“मास्टर साहब, आप भी अपनी कविता सुनाएँगे।”
“तुम सुनोगे?”
“मास्टर साहब आप अगर कविता सुनाएँगे तो हम खूब जोर से तालियाँ बजाकर वाह-वाह करेंगे।”
“अरे, अरे नहीं। भाई इतनी तारीफ मत करना।”
“और मास्टर साहब हम आपको दूसरे दिन उसका भावार्थ लिखकर दिखाएँगे।”
“अरे वाह।”
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कार्यक्रम प्रारंभ हो चुका था। बच्चे पंडाल में दौड़ गए।अविनाश भी फुर्ती से स्टेज की ओर चला दिया। राज बहादुर सिंह ने उसे मंच की ओर देखकर जोरदार शब्दों में उसका स्वागत किया और अन्य कवियों एवं कवियित्रियों से उसका परिचय कराया। सभी अपनी-अपनी रचनाओं को दोहरा रहे थे। एक-एक पंक्ति पर हाथ उठा-उठा कर मुद्राओं की उचित स्थिति का अवलोकन कर रहे थे। शब्दों के उतार-चढ़ाव और भाव-भंगिमाओं को परख रहे थे। ऐसा प्रयास कर रहे थे कि जनता के सामने आते समय तक कोई कमी न रह जाए। वाह-वाह की आवाज से पंडाल गूँजने में कोई गुंजाइश न रह जाए।
अविनाश गुपचुप खड़ा उन्हें देख रहा था। सबके पास कोई न कोई मंजी हुई रचना थी, लेकिन उसके पास तो कोई रचना ही नहीं थी। उसको खामोश खड़ा देखकर राज बहादुर सिंह ने पूछा-
“अविनाश बाबू आपने कुछ तैयार किया?”
“जी नहीं, मैं तो कुछ भी नहीं तैयार कर पाया” सरल स्वभाव में अविनाश ने उत्तर दिया।
“फिर आप क्या सुनाएँगे?”
“यही तो मैं सोच रहा हूँ।”
“अविनाश बाबू आप कैसी बातें कर रहे हैं। यह एक प्रतियोगिता है। नगर की प्रतिष्ठा और सम्मान का सवाल है।”
“मुझे इन सबसे कुछ लेना-देना नहीं है।”
“फिर किससे लेना-देना है?”
“अपने भावों से, हृदय के उद्गारों से।”
“वह आखिर कब पैदा होंगे?”
“मुझे खुद नहीं मालूम।”
“और अगर ऐन मौके तक आपके उद्गारों का जन्म नहीं हुआ तो?”
“मैं मंच से वापस आ जाऊँगा।”
“उफ!आपका भविष्य क्या होगा?”
“उसकी चिंता आपको क्यों है?”
“क्योंकि इसमें हमारे नगर की प्रतिष्ठा का भी प्रश्न है।”
“विश्वास रखिए, प्रतिष्ठा के प्रतिकूल कुछ नहीं होगा।”
“अविनाश जी फिर सोच लीजिए, बहुत बड़ी जिम्मेदारी है।”
“तो आप मेरा नाम काट दीजिए।”
“आप आखिर अपनी लिखी हुई रचनाओं में से कोई एक रचना लेकर क्यों नहीं ले आए?”
“मुझे कोई उपयुक्त नहीं लगी।”
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