अगले माह से वार्षिक परीक्षाएं थीं। हॉस्टल में कुछ छात्र ही ऐसे थे जिन्हें परीक्षाओं का या तो कोई भय नहीं था अथवा परीक्षाओं से उन्हें कोई सरोकार नहीं था, उन्हीं में से एक था रितेश। परीक्षा तैयारी के लिए स्कूल में छुट्टी कर दी गयी। अधिकतर बच्चे पढाई के लिए दिन रात एक किये दे रहे थे। रितेश रोज पढ़ने का प्रयास करता, पढ़ने वाली कुर्सी मेज को सलीके से संवारता, पढ़ने बैठता। वह किताब उठाता, कुछ देर पन्ने पलटता और फिर उसे बंद कर किनारे रख देता। कुछ देर बाद दूसरी किताब उठता, उसके पन्ने उलट पलट कर उसे भी किनारे पटक देता, ऐसा प्रतिदिन होता। दीवान उसकी हरकत से झुंझला रहा था। जब नहीं रहा गया तो एक दिन वह बोल पड़ा, “रितेश भाई क्या कर रहे हो? परीक्षाएं हैं, फाइनल परीक्षाएं हैं हलके में मत लो।“
“तुझे क्या मालूम कि मैं हलके में ले रहा हूँ या भारी में? तू अपनी पढाई देख। मेरी चिंता न कर।“
“चलो चिंता नहीं करूंगा लेकिन तेरी इस हरकत से मुझे डिस्टर्ब होता है। या तो पढ़ या फिर मुँह ढक कर सो। कमरे में बैठे बैठे खड़-खड़ आवाज़ें मत कर।“
“यह खड़-खड़ की आवाज़ क्या होती है?”
“तू पन्ने पलटता है उसी से ये आवाज़ होती है। इस आवाज़ से ध्यान बट जाता है और पढाई नहीं हो पाती। मात्र चार दिन बचे हैं। पांचवे दिन परीक्षा शुरू होगी।“
“वाह रे तेरा ध्यान? अबे इसे किसी तिजोरी में बंद कर के रख दे। मेरी खड़-खड़ नहीं बंद हो सकती। यह खड़-खड़ मेरे मन में भी हो रही है।“
“तो तू मन लगाकर पढ़ना शुरू कर दे खड़-खड़ बंद हो जायेगी।“ बड़े सहज भाव से दीवान ने समझाया।
“अच्छा जा ध्यान लगाकर पढ़। जब तक परीक्षाएं चलेंगी मैं केवल रात में सोने आऊँगा। तुझे डिस्टर्ब नहीं करूँगा।“
“तू कहाँ रहेगा?”
“इससे तुझे क्या? मैं जहन्नुम में जॉन, तेरे पास नहीं फटकूंगा।“ कहते हुए रितेश कमरे से बाहर चला गया। बालकनी में बैठा पहाड़ पहाड़ियों को घंटों देखता रहा। जब तक परीक्षाएं समाप्त नहीं हुई वह देर रात तक भारी कम्बल में लिपटा बालकनी में बैठा रहता। रात में रूम में जाता और सो जाता। सुबह परीक्षा देने जाता। पन्ना स्याह करके चला आता। जब हॉस्टल के सभी छात्र देर रात तक पढ़ते, रितेश घोड़े बेचकर सोता था। परीक्षाओं के पश्चात रिजल्ट सुनाया गया। रितेश के अनेक साथी पास हो गए थे। वह अधिकांश विषयों में फेल था। उसके फेल होने पर सन्देश को गहरा आघात पहुँचा था। वह एक कोने में गुमसुम खड़ा था।
“क्या है बे सन्देश? साले रो क्यों रहा है? कौन मर गया है?”
“रितेश सोचता हूँ अगली कक्षा में तेरे बिना कैसे मन लगेगा?”
“यह किसने कहा कि अगली कक्षा में मैं नहीं पहुँचूँगा? मुझे प्रमोशन ज़रूर मिलेगा।“
“कैसे?”
“जुलाई में देख लेना। तेरे साथ ही पढ़ूंगा। लेकिन फिर फेल हो जाऊँगा। उसके बाद तेरे मेरे रास्ते अलग हो जायेंगे। फिलहाल एक साल तो मौज से काटने दे यार।“
सन्देश ने आगे कुछ पूछना या समझाना उचित नहीं समझा। एक-टक उसके हठधर्मी मन में झाँकने का प्रयास करता रहा। उसे पढ़ने का प्रयास करता रहा।
अगले दो दिन में हॉस्टल खाली करना था। सभी बच्चों को गर्मी की छुट्टियों में घर जाने के आदेश हो चुके थे। जो पास हो गए थे वह जश्न मना रहे थे। फेल छात्र मुँह लटकाए अपने बिस्तर बाँध रहे थे। फेल छात्र में से अधिकांश को यकीन था कि उनके माता-पिता उन्हें अगले वर्ष महँगे स्कूल में नहीं भेजेंगे। वह पास हो गए होते तो किसी भी तरह माता-पिता महँगी शिक्षा का बोझ उठा लेते।
रितेश के लिए फेल छात्रों की मायूसी बेमायने थी। हॉस्टल में अपने कमरे से निकलकर उसने मुकुल को आवाज़ दी। “अमाँ उदास क्यों हैं? फेल है तो क्या हुआ? अगले साल पास हो जाएगा। नींव पक्की हो जायेगी। इधर आ, लोग पास होकर जश्न मना रहे हैं, हम फेल होकर जश्न मना लें। इस क्षण को खुशी से जी लें। स्वामी जी भी कह गए थे कि व्यक्ति को हर हाल में खुश रहना चाहिए। जो होता है, परमब्रम्ह की इच्छा से होता है। हमारा तुम्हारा कहीं कोई अस्तित्व नहीं है। हमारे फेल होने के पीछे भी ईश्वर का हाथ है। ईश्वर की इच्छा का हमें आदर करना चाहिए। वह जो कुछ दे हमें हँसते हुए क़ुबूल करना चाहिए।“
“नहीं रितेश तुझे नहीं मालूम, पिताजी रिटायर हो गए हैं। अब मेरी पढाई का खर्च कौन उठाएगा?”
“तो क्या हुआ जिस स्कूल में दाखिला करा दें वहीँ पढ़ लेना। इस स्कूल में कोई हीरे तो जड़ें नहीं हैं। पढ़ाने वाले तो हर जगह एक ही क्वालिफिकेशन के होते हैं। पढ़ने वालों की क्वालिटी जरूर अलग होती है।“
मुकुल ज़मीन पर नज़रें गड़ाए सोचता रहा। रितेश की बातें दूसरे फेल छात्रों का भी मनोबल नहीं बढ़ा सकी। उनके चेहरे पर उदासी तैरती रही।
दीवान सिंह अपना सामान बाँध चुका था। उसे रात की गाड़ी पकड़नी थी। वह बरामदे में रितेश के पास आया। रितेश के कंधे पर हाथ रख कर बोला, “रितेश अगले वर्ष तू मेरे साथ हो या नहीं, मुझे नहीं मालूम। तेरे साथ गुज़ारे दिन बहुत याद आयेंगे। और यह दिन तो लौट भी नहीं पायेंगे। यह जरुरी नहीं कि मैं, तू और सन्देश इसी स्कूल में एक कमरे में पार्टनर रहें। यदि तुम्हें प्रमोशन नहीं मिलता तो हमलोग बिछड़ जायेंगे। इसीलिए मैं तुमसे एक ही बात कहना चाहूंगा कि तू जहाँ भी दाखिला लेना, मन लगाकर पढ़ना। लापरवाह न होना। बीता वक़्त लौटता नहीं है। पढाई के यह स्वर्णिम दिन जो माता-पिता के सानिध्य में मिलते हैं, उनका उपयोग करना ही श्रेयस्कर होता है। वरना जीवन भर पछताना पड़ता है।“
“अबे जा यार, शुरू हो गया अपना दर्शन लेकर। आज ऐश करने दे। कल जो होगा देखा जाएगा। जैसे विद्वान कह गए हैं मनुष्य को हर पल में जीना चाहिए। इसीलिए मैं घंटों और दिवसों की बात नहीं सोचता। मैंने चोरी से एक पिक्चर देखी थी। “हम दोनों” । उसमें एक गाना था, आज भी मुझे बहुत पसंद है। वह गीत ही मुझे जीवन में दिशा देता है।“
“कौन सा गाना है?” संदीप ने पूछा।
“अमाँ वही कि ‘मैं ज़िन्दगी का साथ निभाता चला गया। हर फिक्र को धुएँ में उड़ाता चला गया, जो मिल गया उसे मुक़द्दर समझ लिया। जो खो गया उसे भुलाता चला गया।“
“अबे सुन यह परदे पर हीरो का दर्शन था, समझा।“ संदीप ने कहा।
“तो हम भी तो दुनिया में अपने जीवन के परदे पर हीरो हैं”, रितेश ने कहा।
“चल भाई तुझसे मगज मारने का कोई लाभ नहीं, जो मन में आये वो कर।“
दीवान ने दुखी भाव से कहा और अपने कमरे की ओर चला गया।
रितेश भी छुट्टियों में घर आ गया था। उसे यहाँ आये अभी सात दिन ही हुए थे। वह बोर होने लगा था। कॉलोनी में उसका कोई दोस्त नहीं था। वह किसी से दोस्ती करना भी नहीं चाहता था। वह नहीं चाहता था कि कोई उसकी पढाई के बारे में कुछ पूंछे।
एक दिन घर पर पिताजी के दोस्त शर्मा जी आये। उनकी पत्नी और दो बेटे भी साथ आये थे। रितेश अपने कमरे में पढ़ने का बहाना किये बैठा था। माँ ने उसे बाहर आने के लिए कहा। वह नहीं आया। बातचीत के दौरान मिसेज शर्मा ने पूछा, “बहनजी रितेश कहाँ है? वह हॉस्टल से घर नहीं आया?”
“आया है। कमरे में बैठा उपन्यास पढ़ रहा है।“
“ओह यह तो बहुत अच्छा शौक है। आजकल के बच्चे कोर्स की किताबें तो पढ़ते नहीं, उपन्यास पढ़ने की कौन कहे।“
मुकेश ! अपने बड़े बेटे को संबोधित करते हुए मिसेज शर्मा ने कहा, “मुकेश जाओ भैया से मिल आओ। अगर वह पढ़ रहे हों तो उन्हें डिस्टर्ब न करना।
“ठीक है मम्मी।“ कहते कहते मुकेश बगल वाले कमरे की ओर चला गया।
दरवाज़े पर उसने दस्तक दी। रितेश ने कोई जवाब नहीं दिया।
“भैय्या”, मुकेश ने धीरे से पुकारा।
“कौन है?”
“मैं मुकेश।“
“अंदर आ जाओ। रितेश ने अनमने मन से कहा।“
“मुकेश दरवाज़ा धकेल कर आ गया। भैय्या आंटी कह रही थीं कि आप उपन्यास पढ़ रहे हैं। आप तो सो रहे हो।“
“हाँ पढ़ते पढ़ते नींद आ गयी थी।“
“कौन सा उपन्यास पढ़ रहे थे?”
रितेश के काटो तो खून नहीं। कभी उसने कोई उपन्यास पढ़ा हो तो वह नाम बताता।
“पता नहीं यार भूल गया। उपन्यास भी शायद पिताजी उठा ले गए।“
“क्यों?”
“पिताजी नहीं चाहते कि मैं उपन्यास पढ़ूं। वह कहते हैं यह गन्दी किताबें होती हैं। जिनको पढ़ने से मानसिक विकास रुक जाता है। वह चाहते हैं , या तो कोर्स की किताबें पढ़ी जाएँ या फिर धार्मिक किताबें। और डिअर मुझे इन दोनों में से किसी भी किताब को पढ़ने में रूचि नहीं है।
“आप किस क्लास में आएं हैं?”
“दसवीं कक्षा में।“
“मैं भी दसवीं कक्षा में आया हूँ। नाइन्थ क्लास में मेरे सेवेंटी फाइव परसेंट मार्क्स थे। पापा कहते हैं कि हाईस्कूल में अस्सी प्रतिशत से कम नंबर नहीं आने चाहिए। आपका क्या परसेंटेज था।“
“यही कोई सिक्सटी परसेंट के करीब था।“
“सिक्सटी परसेंट था।“
“नहीं कुछ विषयों में कम था कुछ में ज्यादा। कुल मिलाकर साठ प्रतिशत के करीब था।“
“पापा ने आप से कुछ कहा नहीं।“
“कुछ ख़ास नहीं कहा। बस यह कहा कि कोशिश करो कि और अच्छे नंबर आ सकें।“
“तो आप क्या कर रहें हैं?”
“क्या करूंगा? पढ़ रहा हूँ।“
“कितने घंटे रोज पढ़ रहे हैं।“
“यही कोई दो घंटे।“
“बस?” आश्चर्य से मुकेश ने पूछा।
“क्यों? तुम्हें ताज्जुब क्यों हो रहा है।“
“मैं तो छुट्टियों में भी छः घंटे पढता हूँ। पापा कहते हैं यह कम है। कम से कम आठ घंटे पढ़ो। यह सुनकर मुझे लगता है मैं पागल हो जाऊँगा। सच कहता हूँ कभी कभी पढ़ते-पढ़ते आँखों के सामने अँधेरा छा जाता है। मन करता है मेज पर सिर रखकर सो जाऊँ। लेकिन पापा के डर से ऐसा नहीं कर पाता। अंकल तो बहुत अच्छे हैं। आपको कुछ कहते ही नहीं।“
“हाँ लेकिन तुमने पापा को बताया नहीं कि तुम्हें पढ़ते-पढ़ते चक्कर सा आ जाता है।“
“बताया था। वह कहते हैं न पढ़ने का बहाना है। माँ से उन्होनें कह दिया है कि वह मुझे बादाम का हलुवा खिलाएं, फल खिलाएं, सब ठीक हो जायेगा।“
“सच में दोस्त पढाई बहुत ख़राब चीज़ है। जीवन का आनंद नहीं लेने देती।“
“नहीं ऐसा नहीं है। कुछ वर्षों की मेहनत के बाद जो आनंद मिलता है वह कहीं बड़ा होता है। मेरे एक भैय्या हैं। हमेशा टॉप करते रहें हैं। आज वह एक बड़ी कंपनी में बड़े अधिकारी हैं। कार है, बंगला है, नौकर है, देश-विदेश घूमते हैं। वह कहते हैं कि टॉप करने के लिए चौदह-चौदह घंटे पढ़ा करते थे। रात में दो-दो बजे तक पढ़ते थे।“
“उन्हें कोई बीमारी नहीं लगी?”
“नहीं। नज़र कमजोर हो गई। चश्मा पहनते हैं। बस।“
“हाँ यार लेकिन चश्मा लग जाए यह कोई अच्छी बात नहीं है।“
“वह तो ठीक है। बहुत से लोग इतना नहीं पढ़ते फिर भी उनके चश्मा लग जाता है। इसमें किसका दोष।“
बाहर से माँ ने आवाज़ दी “रितेश, मुकेश के साथ बाहर आओ। नाश्ता लग गया है।
“हाँ माँ।“
“आइए।“
“मुकेश तुम चलो। मैं बाद में आऊँगा। अभी तबियत ठीक नहीं है।
“नहीं, नहीं। आप चलिए।“
“नहीं मैं नहीं जाऊँगा। तुम जाओ। जिद्द मत करो।“
हार कर मुकेश अकेला ड्राइंगरूम की ओर चला गया। उसे अकेला आता देखकर मिसेज शर्मा ने उससे पूछा, “अरे तू रितेश को नहीं लाया?”
“रितेश भैया कह रहे हैं कि उनकी तबियत ख़राब है। वह नहीं आयेंगे।“
“क्या हो गया है उन्हें?”
“यह नहीं बताया।“
“आओ मैं उसे लेकर आती हूँ।“ कहते-कहते मिसेज शर्मा रितेश के कमरे में जा पहुंची। रितेश चादर ताने लेता था।
“रितेश।“, मिसेज शर्मा ने बुलाया।
“जी आंटी?” चादर को एक ओर करते हुए रितेश उठ कर बैठ गया। “क्या हो गया बेटा? यहाँ की गर्मी सहन नहीं हो रही है?”
“जी आंटी। लगता है लू का असर है। कुछ ठण्ड लग रही है।“
मिसेज शर्मा के बहुत आग्रह करने पर रितेश उनके साथ ड्राइंगरूम में आ गया। वह खामोश एक कुर्सी पर बैठ गया। सामने पिताजी को बैठा देखकर उसकी परेशानी बढ़ गयी।
“और बेटा कैसे रहे इम्तिहान?” मिस्टर शर्मा ने पूछा।
“अंकल अच्छे हुए।“
“पापा एक बात बोलूं?”, मुकेश ने पूछा
“हाँ बोलो।“
“पापा अंकल कितने अच्छे हैं। रितेश भैया को साठ प्रतिशत मार्क्स मिलें हैं। उसके पापा खुश हैं। मुझे पचहत्तर प्रतिशत मार्क्स मिले हैं, मगर आप खुश नहीं हैं। मुझसे कहते हैं दस घंटे बारह घंटे पढ़ो। अस्सी प्रतिशत नंबर लाओ।“
“अच्छा। मिस्टर शर्मा ने मुस्कुराते हुए कहा, “बेटा मैं तुम्हारे अच्छे भविष्य के लिए कहता हूँ। तुम्हें मेरी बात अच्छी न लगे तो तुम उसे मत सुनो।“
“नहीं पापा मेरा मतलब यह नहीं था।“
कुछ पलों के लिए कमरे में ख़ामोशी छा गयी। मिस्टर आनंद ने रितेश को घूरकर देखा। मानो वह कहना चाह रहे हों कि सच बोल देने में शर्म क्यों। रितेश पिताजी के मन की बात समझ गया था। वह एक टक ज़मीन पर आँखें गड़ाए बैठा रहा। थोड़ी देर बाद मिस्टर शर्मा और उनका परिवार चला गया।
मिस्टर आनंद ने रितेश को कमरे में बुलाया, “रितेश तुम्हें सिक्सटी परसेंट मार्क्स मिले हैं। रिपोर्ट कार्ड दिखाओ।“
रितेश जड़वत खड़ा रहा।
“एक बात कान खोलकर सुन लो, तुम्हें यदि यह बताने में शर्म आती है कि तुम बुरी तरह से फेल हुए हो तो पास होने का प्रयास करो। वर्ना साफ़-साफ़ बताओ कि तुम्हारे मार्क्स जीरो परसेंट हैं। तुम फेल होते रहे हो, फेल होते रहोगे। समझे?”
रितेश सिर झुकाए सब सुनता रहा। बुत बना खड़ा रहा। “जाओ अब मेरी नज़रों के सामने से हट जाओ।“ मिस्टर आनंद लगभग चीख पड़े।
“जाओ यहाँ से। एक पल भी न रुको।“
रितेश खामोश अपने कमरे में चला गया।
मिस्टर आनंद बहुत सोशल और आध्यात्मिक व्यक्ति थे। प्रतिदिन शाम को उनसे मिलने आने वाले लोगों का घर पर जमघट लगा रहता। उनमें से बहुत से ऐसे भी लोग होते थे जिनसे पारिवारिक सम्बन्ध थे। वह रितेश के कुशल-क्षेम के बारे में खासे चिंतित रहते थे।
लेकिन उस दिन के बाद से रितेश कभी भी शाम को घर में नहीं रुका। पांच बजते ही घूमने के बहाने निकल जाता और देर रात तक घर लौटता जब तक आने-जाने वाले जा चुके होते। मिस्टर आनंद भी खाना खा चुके होते थे। माँ अवश्य रितेश की प्रतीक्षा में बैठी रहती।
“रितेश।“ एक दिन माँ ने कहा। “तुझे क्या हो गया है? तू सुधरेगा नहीं?”
“माँ मैंने क्या किया?”
“तू इतनी-इतनी देर रात तक कहाँ घूमता रहता है? क्या करता है? ऐसा क्यों करता है? घर में क्यों नहीं रहता?”
“माँ तुमने एक साथ कितने प्रश्न पूछ लिए हैं? मैं किस प्रश्न का उत्तर दूँ? समझ नहीं आ रहा। हाँ इतना विश्वास दिला सकता हूँ कि मैं किसी ऐसी जगह न तो जाता हूँ और न ऐसा कुछ काम करता हूँ जिससे पिताजी और आप के सम्मान पर कोई आंच आये।“
“बेटा सम्मान पर तो आंच आ चुकी है। उस आंच को तू बुझा सके तब तो कोई बात है। वर्ना तो यह ज़िंदगी व्यर्थ ही चली जाएगी।“
“ऐसा मैंने क्या किया है?”
“बेटा आज जब दूसरे बच्चों की तरक्की सुनने को मिलती है तो दिल मसोस कर रह जाती हूँ। काश हम भी कह सकते कि रितेश क्लास में फर्स्ट आया है।“
“माँ ऐसा क्यों सोचती हो? मैं भले ही फर्स्ट नहीं आया। पास नहीं हुआ। लेकिन नीलेश और निधि तो हैं। कभी सोचा है उन दोनों का स्कूल में कितना नक्सा है। स्कूल के बच्चे और सभी शिक्षक दोनों की कितनी प्रशंसा करते हैं। क्या यह काफी नहीं?
“साथ में वह यह भी तो कहते हैं कि तुम रितेश जैसे मत बनना। यह क्या कोई अच्छी मिसाल है?”, माँ ने कहा।
“माँ मिसाल अच्छी हो या बुरी- यह मैं नहीं जानता। तुम कहा करती थी पाँचों उंगलियाँ बराबर नहीं होती है। इतना मैं भी जान पाया हूँ कि कभी कोई किसी के बराबर नहीं हो सकता है। सबकी अपनी किस्मत है। अपनी ज़िन्दगी है। उसे वह जीते हैं।“
“मतलब यह कि तू नहीं संभलेगा?”
“माँ तुम्हारा रितेश कहाँ से बुरा है? कहाँ बिगड़ा है? आज तक तुमसे किसी ने मेरे चरित्र के बारे में शिकायत की है? नहीं। रह गयी बात पढाई की-वह ज़रूर मेरे और तुम्हारे गले की फांस है। यह कब निकलेगी मैं नहीं जानता। लेकिन यकीन रखो माँ, रितेश जीवन में अव्वल रहेगा। घर का नाम रोशन करेगा। मैं जिस हाल में रहूँगा, बादशाह बनकर रहूँगा। देखो पिताजी भी तो कहते हैं कि ‘उसकी मर्ज़ी हो मैं राजा बनूं तो ऐसे रहूँगा कि कभी कोई राजा रहा नहीं होगा। उसकी मर्ज़ी हो मैं भिखारी बनकर रहूँ तो धूल में ऐसे लोटूंगा कि क्या कोई भिखारी लोटा होगा?” समझी माँ? जाओ रात के दो बज रहे हैं। सो जाओ। सुबह चार बजे से तुम्हें फिर उठना है।“
“बेटा क्या सोना और जगना। जब तुम बाप बनोगे तो पता चलेगा कि यदि घर का बड़ा बच्चा बिगड़ जाए तो माँ-बाप पर क्या बीतती है? सम्पूर्ण भविष्य अंधकारमय हो जाता है। ऐसा ही कुछ हमारे साथ भी हो रहा है।“
“अरे माँ कितनी निराशा भरी बातें करती हो। तुम्हारा रितेश बिगड़ा नहीं है। वह पढ़ भी रहा है और कढ़ भी रहा है। तुम्हारे तीनो बच्चे ब्रम्हा, विष्णु और महेश के समान हैं। दुखी मत हो।“
“ठीक है बेटा। तुम्हें समझा भर सकतीं हूँ। मानना या न मानना तुम्हारे ऊपर है।“ कहते-कहते वह सोने चली गयी।
माँ से बात करके रितेश उस रात सो नहीं पाया। घंटों वह सोचता रहा कि क्या करे कि वह पढ़ सके? रह-रह कर उसके सामने मैथ्स टीचर का चेहरा आ जाता और उसका सोचना धरा का धरा रह जाता। लाख कोशिशों के बाद भी वह स्वयं को मैथ्स टीचर के कहे वाक्य से मुक्त नहीं कर पा रहा था। वह वाक्य ‘तुम जीवन भर मैथ्स में पास नहीं होंगे’, जैसे उसके रोम-रोम में बैठा चीख-चीख कर उसे पढ़ने से दूर ले जा रहा था।
किसी तरह से जून के तीस तनाव भरे दिन बीतने को आ गए। स्कूल खुलने में एक सप्ताह शेष था। पिताजी ने एक बार भी नहीं पूछा कि वह अब क्या करेगा। उन्होंने उसे मन लगाकर पढ़ने की नेक सलाह भी नहीं दी। माँ ने भी रितेश से स्कूल जाने के बारे में कुछ नहीं पूछा। स्कूल खुलने के जब तीन दिन रह गए, रितेश से नहीं रहा गया।
“माँ इस वर्ष मुझे स्कूल जाना है?”
“हूँ” जैसे वह पूछ रही हो कि वह स्कूल जाकर क्या करेगा? दूसरे क्षण उन्होंने कहा, “पिताजी से पूछो।“
“पिताजी से मैं नहीं पूछूँगा”
“क्यों।“
“मुझे डर लगता है।“
“ठीक है मैं बात करके तुझे बताऊँगी”
आखिरी तीन दिन भी बीत गए। रितेश को स्कूल भेजे जाने की कोई चर्चा नहीं हुई। रितेश बेचैन हो रहा था। इसलिए नहीं कि उसके साथी उसे नहीं मिलेंगे। अपितु यहाँ तनावपूर्ण माहौल में वह कैसे रहेगा?
एक शाम मिस्टर आनंद दफ्तर से घर लौटे और बैठक में एक कुर्सी पर बैठ गए। ‘रितेश’ उन्होंने जोर से पूछा।
“जी”
“स्कूल जाना है?”
“जी।“
“क्या करोगे स्कूल जाकर? फिर से फेल हो जाओगे।“
“रितेश चुप खड़ा रहा।“
“सोच लो, इस बार फेल हुए तो कोई क्लास नहीं मिलेगा। पढ़ना चाहते हो तो स्कूल भेजूं। वरना फैक्ट्री में माली के पद पर रखवा दूं। ज़िंदगी भर खुरपी लिए घास छीलना। आगे तुम्हारा भाग्य है।“
“मैं पढ़ूंगा।“
“यह तो मैं बहुत सुन चुका हूँ। मेरे कान थक गए हैं। जब तुम पढ़कर दिखाओगे, तभी विश्वास होगा। बाप हूँ इसलिए मन नहीं मानता। यह लो ट्रेन का टिकट है। कल रवाना हो जाओ। लेट पहुँचने से क्लास छूटेगी।
“जी” रितेश के चेहरे पर चमक आ गई।