फेल न होना… भाग – 10

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यह तीन वर्ष भविष्य की आशा संजोये तेज़ी से फुर्र हो गए। सरकते हुए मार्च का महीना फिर आ गया। लेकिन इस बार मार्च का यह महीना कुछ विशेष था। कॉलेज जीवन का यह अंतिम मार्च था। प्रति वर्ष इस महिनें में साथियों से बिछड़ते थे। बिछोह दो माह के लिए हुआ करता था। जुलाई आते ही फिर सब मिल जाया करते थे। कोई पास हो या फेल जुलाई में मिल ही जाता था। लेकिन इस बार का मार्च स्थायी जुदाई का संदेश लेकर आया था। एम.ए. फाइनल के बाद कौन कहाँ जाएगा, कब कौन किससे मिलेगा कुछ पता नहीं। यदा कदा कहीं बाज़ार, रेस्तरों, मॉल या फिर रेलवे स्टेशन पर आते-जाते मेल मुलाकात हो जाए तो बात और है। अन्यथा अब इनके लिए मिलन का संदेश लेकर जुलाई जीवनभर नहीं आएगा।
परीक्षाओं से पहले एकदिन सभी कॉलेज आये थे। प्रवेश पत्र लेने थे। अशफ़ाक़ ने रितेश से पूछा, “अब क्या इरादा है रितेश?”
“इरादों का कोई ताना-बाना नहीं है।“
“क्या मतलब?”
“मेरा वही पुराना इरादा है छोटे भाई-बहन को पढ़ाना। उन्हें अपने पैरों पर खड़ा करना। माँ को जितना हो सके सुख देना है।“
“अबे कब तक दूसरों के बारे में चिंता करेगा? अपने बारे में कब सोचेगा?”
“क्या जिनके लिए मैं सोच रहा हूँ वह पराए हैं?”
“नहीं मेरा मतलब यह है कहीं नौकरी ढूँढेगा या यूँ ही ट्यूशन करता रहेगा?”
“नौकरी मिलेगी तो ज़रूर करूँगा। वरना ट्यूशन क्या बुरा काम है?”
“घर-घर जाकर पढ़ाना कुछ जंचता नहीं।“
“तुम्हें न जंचे। यदि ट्यूशन करके मैं अपने लक्ष्य को पूरा कर सकता हूँ तो मुझे इस काम पर फक्र होगा।“
“दूसरों के बारे में इतना मत सोच। जीवन की गाड़ी मिस कर देगा।“
गाड़ी कोई भी हो, सबको लेकर ही सफर पर चलती है। मैं भी इसी का कायल हूँ। हम कल के नागरिक हैं। हम अकेले चलने की बात करेंगे तो परिवार समाज और देश का क्या होगा। ज्ञान हमें स्वार्थ से ऊपर उठने का संदेश देता है न कि उसमें लिप्त होते जाने का संदेश। अकेला चलने वाला थक जाता है। सबको साथ लेकर चलने वाला गहन अँधेरे में भी राह पा लेता है। मंजिल तक पहुँच जाता है।“
“भाई तू जैसा सोच। हम तो सोचते हैं कि एक समय के बाद सबको छोड़ कर आगे बढ़ जाना चाहिए। यही तरक्की का दर्शन है।“
“अच्छा दर्शन है। तुम्हें मुबारक हो।“
“क्या हुआ रितेश?”, संध्या ने आते हुए पूछा।
“कुछ नहीं। अशफ़ाक़ भाई मुझे सफलता का दर्शन समझा रहे थे।“
“कुछ समझ आया?”
“इनके दर्शन में कुछ हो तो समझ में आये। खोखले दर्शन से रिश्तों और भावनाओं का आकलन करता है। गधा है।“
“मेरी बात की असलियत जब सामने आएगी तब मुझे तू सुकरात से कम नहीं पाएगा।“
“तू अकेला सुकरात नहीं है। सुकरात के व्यावहारिक दर्शन को बदनाम करने वाले तमाम लोग हैं। उनके दर्शन को मान लिया तो न परिवार रह जाएगा न देश। भविष्य की आशंकाएं और स्वार्थपरता की दुष्टता मानवता की सबसे बड़ी दुश्मन है। आज की सोचो। विश्वास करो। कल कौन क्या बदलेगा यह सोचना ही व्यक्ति के आत्म विश्वास को धोख़ा है।“
“रितेश यू आर राईट।“ पास खड़ा शंकर दत्त बोल उठा, ”एक बात और है। गीता में कहा है कर्म करो, फल की आकांक्षा मत करो। रितेश में गीता की जुबां हैं और मन में कर्म का जोश। कीप योर स्पिरिट हाई।“
कॉलेज की अंतिम महफ़िल ख़त्म हो गयी। प्रवेश पत्र लेकर सब चले गए। रितेश कॉलेज प्रांगण में लगे बरगद के पेड़ के नीचे अकेला बैठा न जाने किस उधेड़-बुन में पड़ा रहा। वह वहाँ तब तक बैठा रहा जब तक चपरासी ने उसे कॉलेज गेट बंद करने की सूचना नहीं दी।

परीक्षा देने के बाद से रितेश को एक ही चिंता थी कि कैसे कोई ऐसा काम मिले जिसमें बंधी आमदनी हो। घर का खर्च ठीक रूप से चल सके। भाई-बहन भी बड़ी कक्षाओं में आ गए थे। उनकी पढ़ाई का ख़र्च बढ़ रहा था। माँ भी अस्वस्थ रहने लगी थी। घर में कलहपूर्ण वातावरण था। छोटी-छोटी बातों पर सुबह शाम झगड़ा और कहा-सुनी से वह थक गया था। रिश्ते में एक जीजा जी ने एक प्राइवेट फैक्ट्री में काम दिल दिया लेकिन वेतन बहुत कम था। फैक्ट्री जाने से पहले और आठ घंटे की नौकरी करने के बाद उसे ट्यूशन का सहारा लेना पड़ता था। सुबह छः बजे घर छोड़ता तो रात ग्यारह बजे घर लौटता। माँ के साथ खाना खाता और सो जाता। अगले पांच-छः वर्षों तक उसकी यही दिनचर्या रही। नीलेश एम.एस. सी. कर चुका था। विश्वविद्यालय में उसने टॉप किया था। एक राष्ट्रीय स्तर की कंपनी से उसे नौकरी का ऑफर आया था। वह आई. ए. एस. अधिकारी बनना चाहता था। माँ चाहती थी कि वह नौकरी करे और साथ में कॉम्पटीशन की पढ़ाई करे। लेकिन रितेश ने कहा था कि कॉम्पटीशन की पढ़ाई प्राइवेट नौकरी करके नही हो सकती। उसे पढ़ने दो, खर्चा मैं उठाऊँगा। जो मिलेगा उसी में गुज़र कर लेंगे। कभी तो सुख दस्तक देगा।
माँ ने प्रतिवाद नहीं किया। नीलेश ने नौकरी नहीं की। वह खूब मन लगाकर पढ़ता रहा। प्रत्येक वर्ष उसने एक न एक प्रतियोगिता में सफलता पायी। पी. सी. एस., आई. एफ. एस. और आई. आर.एस. की प्रतियोगिताएं में सफलता पाने के बाद अंत में उसने देश की सर्वोच्च प्रशासनिक सेवा में भी सफलता प्राप्त की। वह एक बड़ा अफसर बन गया। माँ खुश थी। लेकिन उन्हें दुःख था कि नीलेश को असम कैडर मिल गया था। इतने दूर वह अकेले कैसे रहेगा?”
“रितेश मैं नीलेश के लिए नहीं बोली। लेकिन निधि अब किसी प्रतियोगिता में नहीं बैठेगी। वह पढ़ ले। कॉलेज की टीचर बन जाए और यहीं रहे। तू अब बोलेगा नहीं।“
“नहीं माँ। वह भी आई.ए. एस. सेवा में बैठेगी।“
“नहीं।“ माँ लगभग चीख उठी थी। रितेश चुप हो गया था।

दो वर्ष बाद निधि ने भी एम. एस. सी. में टॉप किया। रितेश ने उसे प्रतियोगी परीक्षाओं में बैठने के लिए प्रेरित किया। माँ के लगातार विरोध के बाद रितेश ने उसे राज्य की प्रशासनिक सेवा प्रतियोगिता में बैठने को कहा। उसका चुनाव हो गया। उस दिन माँ खुश हुई थी। मगर उन्होंने साफ़ कहा था वह निधि को आई. ए. एस. बनते नहीं देखना चाहती।
रितेश और निधि ने माँ की ख़ुशी के लिए तय किया कि वह राज्य की प्रशासनिक सेवा में ही रहेगी। अब किसी प्रतियोगी परीक्षा में नहीं बैठेगी। तब कहीं जाकर माँ के चेहरे पर हर्ष भाव पैदा हुआ था। उन्होंने ठीक से खाना खाया था।
रितेश भाई बहन की इस उपलब्धि से कितना खुश, कितना प्रसन्न था इसे स्वयं नहीं मालूम था। धोखे से ख़ुशी के क्षण में रिश्ते के एक भाईसाहब को जब सूचना दी उन्होंने व्यंगात्मक स्वर में कहा था, “अरे यार। यह भी कोई नौकरी है? आई. ए. एस. क्या होते हैं? मंत्री के चपरासी।“
रितेश के मन में आया कि वह हाईस्कूल वाले रितेश के स्वर में उन्हें जवाब दे लेकिन न जाने क्यों वह खून का घूँट पीकर रह गया था। कुछ भी नही बोला था। उसे महसूस हुआ कि मित्रमंडली ने जितना नीलेश और निधि के प्रयासों को सराहा, नातेदारों ने उसके एक सौवां भाग भी नहीं सराहा।
भाई के पोस्टिंग और बहन के ट्रेनिंग पर जाने के बाद रितेश अपने उसी पुराने ढर्रे पर आ गया था। लेकिन उसे अब बड़ी राहत थी। भाई- बहन प्रति माह घर खर्च के लिए नियमित रूप से पैसा भेजने लगे जिससे घर का खर्च और माँ का इलाज़ सही ढंग से होने लगा। नीलेश और निधि ने रितेश से कई बार कहा कि वह अपनी सेहत का ख़्याल रखते हुए काम करे। रिलैक्स होकर काम करे। अब वह अकेला नहीं, चार हाथ उसके साथ और हैं। बड़े आराम से रहेंगे। लेकिन रितेश हठी था। रिलैक्स शब्द उसके शब्दकोश में नही था। यही उसकी कमजोरी थी। वरना वह समाज का सबसे भाग्यशाली और सशक्त व्यक्ति था।

सात वर्षों के लंबे अंतराल में रितेश की कॉलेज मंडली के सभी सदस्य गृहस्थ आश्रम में प्रवेश कर गए थे। नौकरी या व्यवसाय में सेटल भी हो गए थे। लेकिन काफी समय से वह उनके संपर्क में नही था। संध्या अमेरिका में सेटल हो गई थी। एकदिन उसका निमंत्रण मिला। वह भारत आ रही है। अपने बच्चे के तीसरे जन्मदिन के उपलक्ष्य में उसने एक होटल में पार्टी आयोजित की थी। रितेश से पार्टी में आने के लिए अनुरोध किया था। रितेश उसकी पार्टी में गया था। उसे देखते ही संध्या भावविभोर हो उठी थी। अपने पति ज्योतिदास को उसने रितेश से मिलवाया था।
“ज्योति यह रितेश है। मेरे क्या हमसब करीब पंद्रह लोगों के गुरु। कॉलेज लाइब्रेरी में इनका क्लास होता था। वैसा क्लास न पहले कभी हुआ, न होगा। इनकी बदौलत हमसब इंग्लिश लिटरेचर और राजनीति शास्त्र में पास हो सके। और तो और मुख़्तार भाई जो मंत्री हुए इन्हीं के दिशा निर्देशन में कार्यरत रहे।“
“ओह। इट इज़ ग्रेट। बड़ी ख़ुशी हुई आपसे मिलकर। यह आपकी तारीफ तो हमेशा करती थी। मिलकर जो पाया वह तारीफ़ से भी बहुत ज्यादा।“
“अरे बॉस ऐसा कुछ नहीं है। सच तो यह है कि आज अगर मैं पढ़ सका तो उसका श्रेय संध्या को है। मेरे पास तो कॉलेज की फ़ीस भी नहीं थी। एक मोड़ पर तो मुझे लगने लगा था कि मेरा एकेडेमिक करियर समाप्त हो गया है पर संध्या ने मेरी आशा की लौ को बुझने नहीं दिया। उसी का परिणाम है कि रितेश एम. ए. एल.एल.बी. आपके सामने है।“
“अब क्या कर रहे हो?”
“भाई आई. ए. एस. हो गया है और बहन पी. सी. एस. , मैं आज़ाद हूँ। जो मिलता है करता हूँ। ट्यूशन से लेकर चाकरी।“
“सेटल नही हुए?”, संध्या ने पूछा।
“और कैसे सेटल होना है?”
“यानी शादी वादी नहीं की?”
“होनी होगी हो जाएगी।“
इसी बीच संध्या से मिलने उसकी एक सखी आ गयी। संध्या ने दोनों का परिचय करवाना चाहा।
“रितेश यह है विजया। डॉक्टर इन अमेरिका। और यह हैं रितेश, मेरे पुराने क्लासमेट।“
“रितेश तुम्हें नहीं लगता हम कभी कहीं मिले हैं?”, विजया ने पूछा।
रितेश सोच में पड़ गया।
“मैं बताती हूँ। तुम स्टेट कॉलेज में पढ़े हो। कोई विजया तुम्हारी क्लास में थी?”
“ओह विजया तुम? अरे क्या बात है! कब के बिछड़े कैसे मिले।“
“वही इम्पर्टीनेन्ट हो।“
“अभी रहने दो।“
“क्या तुम दोनों एकदूसरे को जानते हो?”, संध्या ने बीच में टोका।
विजया ने संध्या को दस साल पुराना इतिहास चंद पलों में बता दिया।
“रितेश इतने शैतान होकर भी तुम बदल कैसे गए?”
“लंबी कहानी है, फिर कभी सुन लेना।“
“तुम क्या कर रहे हो?”, विजया ने पूछा।
“एक कंपनी में लेबर वेलफेयर अफसर हूँ।“
“क्या काम है तुम्हारा?”
“बस लेबर के सुख दुख में शामिल होना। उनके हितों का ख्याल रखना। उनको बहलाए फुसलाए रखना ताकि वह मालिकों के खिलाफ़ बिगुल न बजा दें।“
“वाह! काम तो अच्छा है। तुम बखूबी इसे कर भी रहे होगे।“, विजया ने कहा।
“हाँ। सब जगह तुम्हारी ज़रूरत पड़ती है।“
“मेरी ज़रुरत?”, विजया चौंकी थी।
“यानी मैथ्स की। तभी पेंचीदा गुत्थियाँ सुलझती हैं।“
“ओह नॉटी रितेश।“
“नॉटी नहीं इम्पर्टीनेन्ट।“
“ओह लीव इट। दैट वॉज़ इनोसेंस।“
“पर बहुत भली थी, वह इनोसेंस। भला था वह मौहाल। तुम्हें पढ़ाना, तुमसे पढ़ना। क्लास गोल करना। फिर भी पास होना। अब यहसब कहाँ? गुज़रे वक़्त की दास्ताँ भर शेष है। अब तो इम्पर्टीनेन्ट भी नहीं रहा। सच। वे दिन आज भी याद आते हैं। मन रोमांचित हो उठता है। फिर उन्हीं पलों में डूब जाने को बेचैन हो उठता है।“
विजया गंभीर हो गयी थी। आँखें छलक आई थीं। रितेश ख़ामोश उसे देख रहा था।
“गंभीर क्यों हो गयी?”
“गंभीर नहीं। तुम्हें पढ़ने का प्रयास कर रही थी। लगा तुम किशोरों के लिए इनसाइक्लोपीडिया हो। उनके संबल हो, उनका आदर्श हो।“
उसके बाद दोनों काफी देर तक पुरानी यादों के तानों-बानों में अल्हड़पन की शरारतों, संजीदगियों पर गुफ्तगू करते रहे। पार्टी शबाब पर चलती रही।
“तुम जीवन में पास हो गए।“, विजया ने कहा।
“यह तुम सोचती हो?”, रितेश ने पूछा।
“अकेली मैं नहीं, सभी ऐसा सोचते हैं।“
“चलो पास का नाम तो मिला।“
एक बजे गुफ़्तगू ख़त्म करके रितेश चलने को हुआ। विजया उसके पास आई। उसके कंधे पर हाथ रखकर बोली, “अपना ख़्याल रखना। ज़िंदगी की मैथ्स पढ़ाने मैं तुम्हारे पास नहीं हूँ। फेल मत हो जाना।“
रितेश खिलखिलाकर हंस पड़ा था। विजया भी अपनी हंसी नहीं रोक पायी। रात की नीरवता में उनकी हंसी गूंजती रही। कब तक, पता नहीं।
विजया कुछ देर तक रितेश को जाते हुए देखती रही।
“अरे विजया, यहाँ क्या कर रही हो?”, संध्या ने पीछे से आवाज़ दी।
“कुछ नहीं। रितेश अभी गया है। बस उसी के बारे में सोच रही थी।“
“क्या सोच रही थी?”
“यही कि सचमुच रितेश उन किशोरों का संबल है जो भावनाओं से आहत होकर विद्रोही और गुमसुम होकर खामोशियों के जंगल में भटक जाते हैं। जीवन लक्ष्य को भुला बैठते हैं। समय सरिता के बहाव के साथ स्वयं को उसकी धारा से नहीं जोड़ पाते हैं। बाद में जीवन समर में असफल होने पर अपनी असफलताओं का ठीकरा अपने भाग्य और परिस्थितियों पर फोड़ते हैं। समाज से शिकवे गिले करते एकदिन अनंत में खो जाते हैं। उनकी प्रतिभा का लाभ समाज को नही मिल पाता। ऐसे ही किशोरों के लिए रितेश आशा की मशाल है। ऐसी मशाल जो कभी बुझ नहीं सकती। बुझनी भी नहीं चाहिए।

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