[avatar user=”vibha” size=”98″ align=”center”]Vibha Pathak[/avatar]
ढ़लती साँझ जब
निशा की गोद में
प्रश्रय लेती है
अपनी तिमिरता का
आकार बढ़ा लेती है
घिरतीं हैं तब दूरतलक
निस्तब्धता ,तन्हाइयां
अनचाही आवाज़े, झींगुरों की छाँय-छाँय,
उल्लूओं की धतकर ,सहमी -डरी हवाएं
इन्हीं हवाओं की सरसराहट में,
रात्रि के आहट में,
बस एक स्वर सुनाई देता ,
हौले से कानों में कुछ कह जाता
बहुत करीब से मानो कोई
चिर परिचित अपना
एक ही धुन में ,एक ही लय में
अविरल रहने का ,अथक चलने का
निरंतरता बनायें रखने का चिर संदेश देतीं
टिक-टिक करतीं समय का भान करातीं
ये घड़ियां हमारीं …….