कहते हैं ‘नजरिया बदल जाए तो नजारे बदल जाते हैं।’ यह कहना कितना सार्थक है, इस बात की परख उन विशेष क्षणों में होती है जब अंतर्द्वंद के जंजालों में उलझी जिंदगी दोराहे पर खड़ी हो जाती है। उस अँधियारी रात में मन क्रोध और पश्चाताप से भर उठता है। अतीत की सुखद स्मृतियों में डूबा ह्रदय भविष्य की चिंताओं के बोझ तले सिसकियाँ भरने को विवश हो जाता है। कोई आस न बचती है नवभोर की। फिर भी, हाँ फिर भी जिंदगी अपनी गति से आगे बढ़ती रहती है क्योंकि गतिशीलता ही जीवन का प्रमाण है। इसलिए मार्ग चाहे जो भी हो, हर एक को चलना ही पड़ता है अपनी अंतिम श्वास तक। सो मैं भी सब ओर से हारी, हतोत्साहित बस चलती जा रही थी बिना किसी उमंग और उत्साह के।
यूं तो मैंने हालातों से समझौता कर जीवन जीने का मार्ग ढूंढ निकाला था किंतु गीता, कुरान, बाइबिल और गुरुवाणी में कही वह बात कि ‘जीवन सौभाग्य है’ मेरे लिए बेचैनी और जिज्ञासा का पर्याय बन चुकी थी। यह बात मन में प्रतिपल फांस की तरह चुभती रहती थी। मैं अक्सर इस कश्मकश में उलझ जाती थी कि क्या जीवन मुझे सौभाग्य से मिला है? विचारों के इस ऊहापोह में दिन बीतते चले गए।
एक दिन कुछ ऐसा घटित हुआ जिसने सुषुप्त चेतना को विचारों के दलदल से निकालकर मुझे जिंदगी की हकीकत से रूबरू करा दिया। मैं नित्य की भांति गंगा तट पर दीपदान करने जा रही थी। तभी नुक्कड़ किनारे एक दस वर्षीय बालिका की बेहिचक खिलखिलाहट सुनकर मैं विस्मय में पड़ गई। विस्मय में इसलिए पड़ गई क्योंकि वह खिलखिलाहट किसी समृद्ध परिवार के नौनिहाल की नहीं अपुति कूड़ा बीनने वाली इंदु की थी। मलिन वेशभूषा और दयनीय डील-डौल वाली अनाथ इंदु, खुशी के मारे फूली न समा रही थी। सुख उसके नेत्रों से अश्रु बनकर झर रहा था मानो स्वर्ग का सिंहासन उसके कदमों में रख दिया हो किसी ने। यद्यपि उसके सुख से मुझे कोई ईर्ष्या न थी फिर भी मेरा कुंठित मन यह देख न सका। मैं उत्सुकतावश बोली- ‘अरे पगली, इतना क्यों उछल रही है? न सिर पर छत है न दो वक्त की रोटी। तुझे शर्म नहीं आती यह स्वांग रचने में।’
मेरी झुँझलाहट मेरे शब्दों में बयाँ हो रही थी। इंदु कपते स्वर में बोली-‘दीदी, सुबह से भूखी थी। सौ का नोट मिला है कूड़े में। अब भरपेट खाऊँगी। जितना मांगा था भगवान ने उससे अधिक दे दिया। किसतरह धन्यवाद करूं उसका….?’ मैं ठगी-सी रह गई।कितने ही सुख और साधन मेरे हाथों में थे, पर क्या मैं कभी धन्य हुई हूँ उन्हें देने वाले के प्रति? मैं विचारने लगी। अब अश्रु मेरी आँखों में भी झलक आए थे। मैंने इंदु का हाथ थामा और दोनों बोल पड़े- शुक्रिया जिंदगी….।
- मोहिनी तिवारी