अवध के गलियारे में कल एक शाम गुज़री,
और गुज़री भी तो क्या ख़ूब गुज़री,
के हर ज़र्फ़ को पूरा सा भरके गुज़री,
ख़ुदा से मांगी दुआ के सदक़े गुज़री,
के चिलमन से झाँकती रौशनी गुज़री,
शक्कर में घुलती चाशनी गुज़री,
के गुज़रा वो चकोर भी अपने चांद की झलक पाने को,
औऱ परवानों के क़रीब से उसकी शम्मा गुज़री,
अपने तीर चलाती हुई वो नज़र गुज़री,
शेर का हाथ थामे कल उसकी गज़ल गुज़री,
गुज़रा वहां से हुस्न भी, इश्क़ का तलबगार होकर,
और तरानों में डूबी उसकी तरन्नुम गुज़री,
ग़ुरूर को लिए कल शरमाई सी
उसकी अदा गुज़री,
ख़ामोशी के पीछे से बोलती सदा गुज़री,
इत्र से होकर उसकी ख़ुशबू गुज़री
आईने के अक्स सी हूबहू गुज़री
गुनाह के साथ गुस्ताख़ी गुज़री,
ख़ता करती हुई माफ़ी गुज़री…
उम्मीद को थामे आस गुज़री
हाँ ,कल शाम कुछ ख़ास गुज़री
हाँ, कल शाम कुछ ख़ास गुज़री ।।
~ अनीता राय ~