दो ध्रुव हैं
आत्मा के सुदूर इलाकों में
जहां सदियों की बंजर भूमि में
उगने वाले पौधे
पीड़ा के प्यासे है
और ग्रहण नहीं करते कभी
भीड़ से टकराकर आता हुआ प्रकाश
जिन्हे सबसे अधिक प्रिय हैं
एकाकीपन की कोठरियों के पागल अंधियारे
जहां दरिया की प्यासी लहरें दौड़ती है
पाने को वह छवि
जो सदियों पहले किसी मरुस्थल में
दफ्न कर दी गईं
किंतु स्वप्नों के जटिल जाल में जो है जीवित अब तक
तुम्हारे मार्ग के आरंभ से भी बहुत दूर
ये ध्रुव
रोज तय करते हैं प्रथ्वी के अंत तक की दूरी
यह जानते हुए , हां है ज्ञात बहुत कुछ
कि यह खोज वहां कि जहां तुम नहीं हो
या कि तुम्हारी स्मृतीयों का बोझ
- मौसम