[avatar user=”vibha” size=”98″ align=”left”]Vibha Pathak[/avatar]प्यास कितनी लगी है
आँख में पानी है जितना
उतनी लगी है
हाथ पर रक्खे मूल्य जितनी लगी है
चार कदम दम भर चल लूँ
उतनी लगी है
सूखते कंठ कुछ कह पाए
तर हो जाये उतनी लगी है
धधकती मृग तृष्णा बुझ जाए
उतनी लगी है
आंखों से खारे पानी का स्वाद मिटा दे
उतनी लगी है
हया शील की नमी रह जाए
उतनी लगी है
ममता से सरावोर रह जाए
उतनी लगी है
द्रवितों को देख द्रवित हो जाए
उतनी लगी है
मानवता पसीझ जाए
उतनी लगी है
कृतघ्न न हो जाए
उतनी लगी है
अपनत्व का अंकुरण हो जाए
उतनी लगी
तड़पता हृदय ठंडा हो जाए
उतनी लगी है
अंजुरी भर-भर जितनी पी जाए
उतनी लगी है
गहरे कूप से जितना निकल जाए
उतनी लगी है
क्योंकि
प्यास बुझने से अधिक पाने पर
उसकी कीमत घटी है
जितनी कीमत रही है
उतनी प्यास बढ़ी है