[avatar user=”vibha” size=”98″ align=”center”]Vibha Pathak[/avatar]
धूप बहुत प्यारी लगती है
कड़क चाय की प्याली लगती है
खोलती है आंखें नई ऊर्जा देने लगती है
आती जब देहरी पर स्वर्णिमा भरने लगती है
सोये हुए अरमानों को पुनः जगाने लगती है
दशों -दिशाओं में फैले अंधकार को निगलने लगती है
हर अंश आत्मा में चेतना का स्वांस भरने लगती है
चराचर जगत के पहियों को अविरल गति देने लगती है
सृष्टि में सरसजीवन का अलौकिक आनंद भरने लगती है
जेठ की भरी दोपहरी में खुद का दर्द भूलने लगती है
पलाश के फ़ूलों में सुर्ख़ लाल रंग भरने लगती है
जिजीविषा देती थके कदमों को साहस भरने लगती है
लेक़िन क्यों?
यही धूप ! जब ऋतु बदल नव चटक रूप में आती है
तब ना जाने क्यों पुराने दिनों सी भुलायी जाती है
स्वयं तिरस्कृत होती अस्तित्व को ढूंढने लगती है
ना जाने क्यों अंदर ही अंदर अंतर्मन को
यही बातें चुभने लगती है कुरेदने लगती है
कुछ सवाल करती मन -ही मन कचोटने लगती है
मतलब परस्त खुदगर्ज़ जहाँ की ये बात नहीं अच्छी लगती है
धूप बहुत प्यारी लगती है