क्षण आज नहीं..

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क्षण आज नहीं..
कि आगत की मैं करूंँ प्रतीक्षा कर बांँधे।

क्षण आज नहीं…
कि सोच विगत को अश्रु रचूँ।

जीवन है वही…
कि जो कोमल चरणों से रौंदे अंगारे…
क्यों न बन मैं स्वयं वह’नियति चक्र”स्व’सृजूँ ?
है प्रेम में कुछ प्रतिदान नहीं..
पर ह्रदय तो फिर हैं.. एक हमारे ।

क्यों न चमत्कृत करूँ विश्व को..
‘तुम’ में बस ‘तुम’ बनूँ…?
आवेशित हो ‘चुंबकत्व’ से…
पुनः आवेग वही.. सोए.. जागें..
जिनको न किया कभी सिंचित..
क्यों न अब भी जल सिक्त करूंँ ?
तुमको देकर अपना सबकुछ…
इस प्रेम-रिक्य से रिक्त करूँ।

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