कंचन और रवि की शादी को तीन माह हुए थे। वैवाहिक जीवन सुखी था। पर कंचन अभी तक अपने मन की बात रवि से खुलकर नहीं कह पाई थी। यह उसकी अधूरी खुशी का कारण था।
एक दिन जब कंचन और रवि नाश्ते की मेज पर बैठे थे, रवि ने कंचन के चेहरे पर एक नजर डाली और खामोश अपने चाय के कप को निहारता रहा। एक क्षण बाद कंचन को देखकर रवि ने प्रश्न किया- ‘बड़ी उदास लग रही हो।’
‘नहीं तो।’
‘क्या माँ ने कुछ कहा?’
‘नहीं।’
‘फिर?’
‘मन विचलित है।’
‘क्यों?’
‘आपसे कुछ कहना चाहती हूँ।’
‘कहो।’
‘भय है कि आप अन्यथा न ले लें।’
‘नहीं, बताओ।’
‘मैं पढ़ना चाहती हूँ।’
‘क्यों?’
‘डॉक्टर बनकर समाज सेवा करना चाहती हूँ।’
‘क्या परिवार सेवा से मन भर गया?’
‘ऐसा मैंने कब कहा?’
‘कहा तो नहीं पर शादी के बाद यह संभव नहीं। घर संभालना बड़ा काम है। समाज सेवा कैसे कर पाओगी?’
‘मैं घर और समाज, दोनों के प्रति अपने दायित्व का निर्वाह कर लूंगी।’
‘अच्छा..। इस विषय पर फिर कभी बात करेंगे।’
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तीन दिन बीत गए। कंचन कॉलेज में एडमिशन के लिए फॉर्म ले आई। फॉर्म भरकर उसने खाने की मेज पर रख दिया। ‘कंचन यह क्या है?’ रवि ने कठोर स्वर में कहा।
‘बताती हूँ, पहले आप खाना खा लीजिए।’
‘हटाओ यह सब..। न जाने कौन तुम्हारे कान फूँक रहा है। बेकार की जिद्द किए बैठी हो।’
‘मैं अपना स्वप्न नहीं छोड़ सकती।’
‘तो मुझे छोड़ दो..। क्या सोचती हो तुम मेरे बारे में? क्या मैं ऐसा आदमी हूँ कि अपनी पत्नी को घर के बाहर भेजूँ? सारे ऐशो-आराम तो मैंने दे रखे हैं और क्या चाहिए? एक बात समझ लो यह मेरा घर है जो मैं चाहूँगा वही होगा यहाँ।’ कंचन निरूत्तर हो गई।
×××××
उस रात के बाद कई दिनों तक दोनों के बीच कोई बातचीत नहीं हुई। नाश्ते और खाने की मेज पर भी खामोशी छाई रही। हारकर कंचन ने ही एक दिन भारी मन से कहा-‘आज मैं फॉर्म जमा करने जा रही हूँ। आप भी चलिए।’
रवि कुछ न बोला। कंचन ने फिर पूछा-‘चलिएगा न?’
‘मैं अपना निर्णय बता चुका हूँ। तुम्हें एडमिशन लेना ही है तो अकेले जाओ।’
‘ठीक है।’ कंचन गई और एडमिशन फॉर्म जमा कर आई। रवि देखता रहा।
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‘अरे, आप घर पर? ऑफिस से इतनी जल्दी आ गए? तबीयत तो ठीक है न?’ कंचन ने पूछा।
‘हाँ, ठीक है। मगर हमारी राहें जुदा हो गई हैं।’
‘मतलब?’
‘मैं तुम्हारे साथ नहीं निभा पाऊँगा। मैं तलाक चाहता हूँ। यह पेपर्स बनवा दिए हैं। तुम्हारे साइन चाहिए।’
‘तलाक…! इतनी सी बात पर?’
‘तुम्हारे लिए इतनी सी बात होगी। मेरे लिए बड़ी बात है।
‘पर….’इससे पहले कि वह कुछ कहती , रवि ने कलम उसकी ओर बढ़ा दी।
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कंचन ने डबडबाई आँखों से रवि की ओर देखा और उसके मन को पढ़ने का प्रयास किया। पर वह कठोर हो चुका था। कुछ सुनने-समझने की स्थिति नहीं बची थी। कंचन ने प्रतिवाद नहीं किया। उसने कंपते हाथों से तलाक के पन्नों पर साइन कर दिए। रवि कागज लेकर चला गया।
कंचन अपने कमरे में लेटे टकटकी लगाए छत की ओर देखती रही और सोचती रही कि कैसे उसने माता-पिता का मन रखने के लिए पढ़ाई छोड़ी, कैसे विवाह के लिए राजी हुई। पर उसे क्या पता था कि पति उसे शादी की संकीर्ण लक्ष्मण रेखा में रहने को बाध्य कर देगा। वह चाहकर भी अपने स्वप्न को पूरा न कर पाएगी और जिंदगी के दोराहे पर आकर खड़ी हो जाएगी, जहाँ उसे किसी एक को चुनना होगा- ‘पढाई या घर ? पति का साथ या तलाक…?’
- मोहिनी तिवारी