लौट चलें…..

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व्यवस्थाओं के भवन की दरकती दीवारें
धरती के जख्मों पर कुछ मरहम लगा
वक्त ने खेला ये कैसा दाँव !
आओ लौट चलें अपने गाँव….।

प्रकृति के आँगन में इठलाती नदी
शिवालय के शिखर पर मचलती हवा
पर, आदमी को न मिलती दो पल की छाँव !
आओ लौट चलें अपने गाँव….।

गगन की छटा में छलकता सुकूँ
कुदरत करती अपना हिसाब
टूटता बड़प्पन का झूठा गुरुर
जेठ की दुपहरी में तपते पाँव
आओ लौट चलें अपने गाँव….।

  • मोहिनी तिवारी

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