ख़्वाब कुछ अनकहे
जिस तरह बादल बरस-बरस थक
आ गिरते धरती के सीने पर
सूरज भी फैलाते उजियारा
थक आ गिरते संध्या की गोद मे
नदियाँ भी सबको तृप्त करती
स्वंय पाती विश्रान्ति सागर के सानिध्य में
हवाएँ भी तो फिज़ाओं को महका
ख़ुद दामन थामती पत्तों का
वैसे ही
कर्म पथ पे चलते-चलते
जब हो जाओ क्लांत,शिथिल
तब तुम आना
मेरे आँचल की ओट में
निर्भीक तुम विश्रान्ति पाना
देना दूसरों को सब कुछ
पर मुझे कुछ नहीं,
बस-
उम्मीद आख़री तुम्हारी
रहूँ यही प्रीत उपहार देंना
-विभा पाठक