इंसाफ़ करो

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टिमटिमाती रोशनी लेकर
जश्ने चराग़ा क्यों मनाते हो
औरत की आबरू वो थी
लगा दी आग लंका को
महाभारत भी ना होता
जो द्रौप्दी पे ना बन आती
ज़रा तारीख़ से सीखो
ये वही हिन्दोस्ताँ तो है
अफ़सोस करने वालों पर तो
अब अफ़सोस होता है
क्या औरत सिर्फ़ रहम के काबिल है
वक्त भी देते हो वकील भी
बहस और सुबूत की आड़ में
बरसो फैसले का इंतज़ार
न ज़ानी की सिरपरस्ती होती
ना हौसले बुलंद होते
ऐ वक़्त के हाकिमों इंसाफ़ करो
इंसाफ़ करो
इंसाफ़ करो

  • उरूसा नज़र

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