
‘ओ क्षण’.. क्यों नहीं,
मेरे ही होकर रह जाते तुम..
‘क्षण’.. तुम आज भी मेरे हो..
पर यह कल्पना, यह विचार..
कि कैसे जियूंँ..? तुम निकलते जा रहे हो,
मेरे हाथ से..रेत के ढेर की तरह, जिसे
जितना कसके पकड़ती हूंँ..
उतनी ही तेजी से वह..सरकती जा रही है…
मैं असहाय ..!
जीवन की वेदना ..मूक रहकर है सहना,
जिधर भी देखो …सब है पराए..
सुनसान मरुस्थल में
मैं असहाय…!
‘क्षण’.. तुम क्यों हो ऐसे..
कि तुम्हें अपना पाकर भी,
मैं अपना बना नहीं पा रही..
‘क्षण’.. तुम क्यों नहीं… ठहर जाते वहीं..
जहाँ तुम हो मेरे..
जानती हूँ यह भी..कि क्षणों को
अपना समझना. मात्र है आत्म-प्रवंचना..
पर क्या करूंँ…
हो दुर्लभ तुम ‘हर क्षण’ ओ ‘क्षण’
मैं असहाय….!