फेल न होना… भाग – 9

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कैंप से लौटकर रितेश फैक्ट्री गया। हाजिरी बाबू ने उसे बताया कि उसकी जगह दूसरा लड़का रख लिया गया है। अब फिलहाल कोई जगह नहीं है। रितेश ने काम के लिए कोई आग्रह नहीं किया। यह सोच कर कि जो होता है अच्छे के लिए होता है। वह फैक्ट्री से घर वापस आ गया। अगले दिन वह सरला को पढ़ाने गया। सरला बहुत खुश लग रही थी।
“क्या बात है सरला बहुत खुश नजर आ रही हो?”
“सर मेरे लिए तो कम आपके लिए बड़ी ख़ुशी की बात है।“
“मेरे लिए?”
“हाँ सर क्लास में मेरी प्रोग्रेस देखकर मेरी दो सहेलियों ने अनुरोध किया है कि आप उनको भी पढ़ा दें। वह मेरी पक्की सहेलियाँ हैं। पढ़ाने के लिए न मत कीजियेगा। फीस भी जो ठीक लगे बता दीजिएगा।“
“कहाँ रहती हैं?”
“दो घर छोड़ कर।“
“मेरे लिए यह बड़ी खुशखबरी है। लेकिन यह बताओ कि वह पढ़ना चाहती है या तुम्हारी तरह पढ़ना चाहती है?”
“इसका क्या मतलब?”
“तुम नहीं जानती हो तुम कैसे पढ़ती हो? कितनी शरारत करती हो? किसी दिन सर ने देख लिया तो हम दोनों कहीं के नहीं रहेंगे।“
“हम ऐसा क्या करेंगे जो हम कहीं के नहीं रहेंगे? आप तो बहुत डरते हैं। डरना छोड़ दीजिए वरना……”
“वरना क्या?”
“बताती हूँ।“ और उसने इंक पेन को रितेश की शर्ट पर छिड़क दिया। स्याही के धब्बों से शर्ट खराब हो गयी।
“यह क्या किया तुमने?” रितेश ने नाराज़ होते हुए कहा ।
“आपका डर दूर किया। आज जब पापा आयेंगे तभी आप जाइएगा। पापा इन धब्बों के बारे में पूछेंगे तो देखूं आप क्या बताते हैं दोस्त जी।“
“सरला तुमने मेरी एकलौती शर्ट बर्बाद कर दी।“
“कल से बनियाइन पहन कर आइएगा।“ कहते-कहते वह हंसने लगी।
उसकी आवाज़ सुनकर मिसेज़ गुप्ता बाहर आ गयी “क्या हुआ?”
“माँ पेन नहीं चल रहा था, मैंने ज़ोर से झटका तो स्याही छिटक कर मास्टर साहब की कमीज़ पर पड़ गयी। बेचारे की एकलौती शर्ट खराब हो गयी।“
“सरला अगर तुम्हारी सहेलियाँ भी तुम्हारी तरह शरारती हुई तो मैं नहीं पढ़ा पाऊँगा।“
“मास्टर जी अगर अब भी आपका डर दूर नहीं हुआ है तो मैं लाल स्याही छिड़क दूँगी।“
“शट अप।“
“थैंक यू। लेकिन यह सोच लीजिये कि अगर मैं नहीं बोली तो आप बोर हो जाएंगे। पढ़ा नहीं पाएंगे।“
रितेश खामोश रहा।

अगले महीने से रितेश ने सरला की तीन सहेलियाँ शर्मिष्ठा, ऋतु और कल्पना को पढ़ाना शुरू कर दिया था। तीनों ही कुशाग्र बुद्धि थी। स्वभाव से चंचल। पढ़ने के प्रति उनकी भी अधिक रुचि नहीं थी।
“शर्मिष्ठा ने तो पहले ही दिन रितेश से पूछा “सर सरला कहती थी आप हाथ बहुत अच्छा देखते हैं। मुझे कुछ पूछना है।“
“पूछना बाद में पहले पढ़ो।“
“यार पढ़ाई तो होती रहेगी। यह बताइए कि मैं एक लड़के को बहुत चाहती हूँ पर वह मुझे चाहता है या नहीं मेरा हाथ देखकर बताइए।“
“देखो इस सवाल का जवाब मेरे पास नहीं है।“
“नहीं प्लीज मेरी ज़िन्दगी का सवाल है।“
“है तो मैं क्या करूँ?”
“आप सर है मुझे गाइड कीजिये।“
“तुम उस लड़के के बारे में सोचना छोड़ दो। पढ़ाई में मन लगाओ नहीं तो फेल हो जाओगी।“
“फेल तो नहीं हो सकती। चार साल से उसके लिए परेशान हूँ। सामने वाले घर में रहता है।“
“चलो किताब खोलो।“
“सर पहले मेरे भाग्य की किताब पढ़ा दो न।“
“सॉरी।“
“व्हाट सॉरी? सरला तो आपके बारे में इतनी अच्छी बातें बताती गई। आप तो मायूस कर रहे हैं। मैंने तो पढ़ना इसलिए चाहा था कि आप जैसा एक दोस्त मिलेगा।“
“दोस्त?” रितेश चौंक गया।
“हाँ सर देखिए हमारे मन की बात घर में कोई नहीं सुनना चाहता। भैय्या हैं वह अपनी गर्लफ्रेंडस के बारे में घर में रिश्तेदारों से बात करते हैं तो कोई बुरा नहीं मानता। हमे डर लगता है कि अगर हम बॉयफ्रेंड की बात करेंगे तो घर में कोहराम मच जाएगा। आपसे से अच्छा हमारा शुभ चिंतक दोस्त कौन होगा?” रितेश शर्मिष्ठा के प्रश्नों के उत्तर में हमेशा एक ही बात कहता रहा कि वह लड़कों के सपने छोड़े, पढ़े, अच्छा करियर बनाए। लेकिन वर्ष के अंत तक शर्मिष्ठा नहीं सुधरी। उसने पढ़ाई को गंभीरता से नहीं लिया। फिर भी परीक्षा में वो अव्वल रही।
ऋतु और कल्पना भी पढ़ाई कम व्यक्तिगत समस्याओं के समाधान रितेश से करती रही। रितेश उनकी बातें सुनकर हतप्रद रह जाता था। कितनी बेबाक थी वह। कच्ची उम्र में लंबे रिश्तों के स्वप्न देख रही थीं।
कल्पना ने रितेश से स्पष्ट कहा, “सर हम क्या क्या बात आपसे पूछते हैं, आपको अटपटा लगता होगा। लेकिन सर बताइये हम अपने भावात्मक उद्वेगों को अकेले कैसे नियंत्रित करें? किसी की सलाह तो चाहिए न। घर में अपनी भावनाओं को व्यक्त करना अनैतिक है। किसी अनजान से ऐसी बात करना, खतरे से खाली नहीं। जब सरला ने आपके स्वभाव के बारे में बताया तो लगा कि आप से अच्छा व्यक्ति कोई और नहीं होगा। आप के सानिध्य में रहकर शायद हम सुधर भी सकें।“
ऋतु ने भी अपने मन की गुत्थियों को सुलझाने के लिए रितेश से पढ़ना आवश्यक समझा। रितेश ने कच्ची उम्र के ऐसे कितने ही लड़के- लड़कियों को पढ़ाया। उनके मनोभावों को समझा। उनके भावनात्मक अंतर्द्वंदों और उनकी आकुलताओं को करीब से देखा। उसे लगा कि कहीं न कहीं बच्चों के स्वस्थ मानसिक एवं भावनात्मक विकास में घर परिवार अपने उत्तरदायित्व से दूर होते जा रहे हैं। उन्हें यह दूरी कम करनी होगी। बच्चों को भावनात्मक रूप से जोड़कर उन्हें दिशा निर्देश देना होगा। अन्यथा वह दिन दूर नहीं होगा जब कम उम्र के लड़के-लड़कियों के निश्छल भावनात्मक पटल पर कुटिलता का प्रहार होगा। उनका व्यक्तिव विघटित होने लगे। वह समाज के संतुलित विकास के लिए एक बड़ी चुनौती बन कर खड़े हो जाएँ।

उसके सहज स्वभाव के कारण उसे ट्यूशन मिलते रहे। फैक्ट्री के दम घोंटू वातावरण से मुक्ति मिल गयी। वह प्रसन्न था। यद्यपि ट्यूशन तो बहुत थे लेकिन ट्यूशन से मिलने वाली आय बहुत कम थी। वह स्वयं अभी एक छात्र था। किसी प्राइमरी स्कूल में भी पढ़ाने का अनुभव नहीं था। बच्चों के माँ बाप उसकी अनुभव हीनता का लाभ उठाते। उसे कम से कम पगार देते। दूसरे जो भी ट्यूशन मिलता वह किसी नजदीकी के कारण मिलता। वह संकोची स्वभाव वश पगार के बारे में कुछ नहीं कह पाता था। पूरा दिन लगे रहने के बाद भी उसको इतनी पगार नहीं मिलती कि घर का खर्च और भाई बहन की पढ़ाई सुचारू रूप से चल सके। माँ, छोटा भाई और बहन तीनों बहुत समझदार और मितव्ययी थे। जो मिलता था खा लेते जो मिलता पहन लेते। कभी किसी बात को लेकर वह रितेश को चिंता में नहीं डालते थे। कैसे-कैसे पुरानी कॉपियों के कोरे पन्नों को निकालकर नयी कॉपी बनाकर नीलेश और निधि पढ़ाई के खर्च को कम किया करते थे, रितेश जानता था। जब भी पैसे की सुविधा होती वह उनके लिए अच्छी कॉपियाँ खरीद देता था जिस पर भाई बहन रितेश को फिजूलखर्ची कम करने की सलाह देते थे।

फ़रवरी माह के अंत में कॉलेज और यूनिवर्सिटी परिक्षा की फीस न देने वाले छात्र-छात्राओं के नाम की सूची नोटिस बोर्ड पर लगाईं गयी। उनसे कहा गया था कि वह दस मार्च तक पूरी फीस दे दें अन्यथा उन्हें परीक्षा में नहीं बैठने दिया जाएगा। इसमें रितेश का भी नाम था। उसने आर्थिक तंगी के चलते पिछले तीन माह से कॉलेज की भी फीस नहीं दी थी।
नोटिस पढ़ा, एक पल के लिए वह ठिठका फिर उसे लगा कि वह क्या कर सकता है। उसने कोई भी ऐसा प्रयास नहीं छोड़ा कि उसको अधिकतम पगार न मिले। जो कुछ वह कर रहा है, उसके अतिरिक्त उसके पास और कोई विकल्प नहीं है। अब ईश्वर ही एक विकल्प है। वह जैसा उचित समझेगा उसके लिए करेगा।
वह नियमित रूप से कॉलेज आता रहा, पढ़ता रहा, संगी साथियों के साथ गप्प शप्प करता रहा। उनको भी यथावत पढ़ाता रहा।
एकदिन वह तमाम छात्र-छात्राओं से घिरा उन्हें शेक्सपियर के प्रसिद्ध नाटक ओथेलो के बारे में कुछ बता रहा था, अशफाक ने उसके समीप आकर कहा, “रितेश गुरु तू पढ़ाने में तो मग्न है, पर तुझे मालूम है तू परीक्षा में नहीं बैठ पायेगा?”
रितेश ने उसकी बात अनसुनी कर दी। अपनी बात करता रहा।
“अबे सुना नहीं?”, अशफाक ने उसे झिंझोरा।
“सुन लिया। देख भी लिया।“ रितेश बोला।
“एक्शन क्या लिया?”
“कुछ नहीं। अगले साल परीक्षा दे दूंगा।“, बड़ी सहजता से रितेश ने जवाब दिया। अशफाक चुप हो गया। कुछ पल रुक कर खिसक लिया।
रितेश ने सोच लिया था कि यदि नौ मार्च तक फीस जमा करने का कोई रास्ता नहीं निकला तो वह दो दिन बाद कॉलेज आना बंद कर देगा। फीस जमा करने की अंतिम तिथि भी आ गयी थी। उसके पास फीस देने का कोई रास्ता नहीं निकला। उसने फीस क्लर्क से पूछा कि क्या वह अगले वर्ष पूरी फीस देकर परीक्षा में बैठ सकेगा?
फीस क्लर्क ने उसका मुँह देखा “तुम्हारी कौन सी फीस बाकी रह गयी है?”
“नोटिस बोर्ड पर मेरा नाम था।“
“हाँ लेकिन फीस तो नोटिस लगने के बाद दूसरे दिन ही जमा हो गयी थी।“
“फीस जमा हो गयी?” रितेश को विश्वास नहीं हो रहा था। “भाई ठीक से देख लो। मैंने तो फीस जमा नहीं की। गलती से किसी और की फीस तो मेरे नाम पर नहीं चढ़ गयी?”
“नहीं रितेश। तुम्हारी फीस संध्या ने जमा की थी। रसीद नहीं ले गयी थी। कह गयी थी कि रसीद ये तुम्हीं को दूं। यह लो रसीद। परसों प्रवेश पत्र ले जाना।“

शाम को रितेश संध्या के घर गया। विशालकाय ‘साहनीविला’ के बाहर बैठे दरबान से रितेश ने सूचना भेजी और गेट पर खड़ा उत्तर की प्रतीक्षा करने लगा। इसी बीच साहनी साहब टहलते हुए गेट तक आये और रितेश को देखकर रुके। “किससे मिलना है?”
“संध्या से।“
“तुम उसे कैसे जानते हो?”
“उसके साथ क्राइस्ट चर्च कॉलेज में पढ़ता हूँ।“
“क्या काम है?”
“बस शुक्रिया अदा करने आया था।“
“किस बात का शुक्रिया?”
“उन्होंने मेरी फीस दी। मुझे परीक्षा में बैठने का मौका दिया है।“
वह अभी कुछ कहते कि संध्या आ गयी।
“पापा यह मेरे क्लासमेट हैं। पढ़ाई में बहुत तेज़ हैं। हम तमाम लोगों को लाइब्रेरी में बैठकर अंग्रेजी और दूसरे सब्जेक्ट्स पढ़ाते हैं।“
“ओह वैरी गुड।“, कहते-कहते साहनी साहब घूमने लगे।
“आओ अंदर आओ।“ संध्या ने कहा।
“नहीं समय नहीं है, ट्यूशन पर जाना है।“
“अरे छोड़ो आओ कुछ देर बैठो।“
रितेश मना नहीं कर पाया, दोनों बरामदे में पड़ी कुर्सियों पर आमने-सामने बैठ गए।
“बताओ कैसे आये?”
“कुछ नहीं बस सोचा तुम्हारा शुक्रिया अदा कर दूं। आज ही फीस बाबू ने बताया कि तुमने मेरी बकाया फीस जमा कर दी है। ऐसा क्यों किया?”
“मित्रता के नाते और सामाजिक दायित्व के नाते।“
“मैं समझा नहीं।“
“रितेश अच्छे छात्र परीक्षा न दे सकें तो समाज का दुर्भाग्य होगा। मैं तुम्हारी फीस दे सकती थी, इसलिए दे दी। हम किशोर वर्ग के लोग यदि संवेदनशून्य हो एक दूसरे के काम नहीं आयेंगे तो बताओ अच्छे समाज का निर्माण कैसे होगा?”
“लेकिन बाजारवाद, भौतिकवाद और स्वार्थवाद के दौर में क्या संवेदनाओं का कोई स्थान है?”
“संवेदनाओं का स्थान हो न हो। मैं इतना जानती हूँ कि संवेदनाएं ही विभिन्न सामाजिक संबंधों का आधार हैं। मैं यह भी मानती हूँ कि किशोरों में संवेदनहीनता बढ़ रही है लेकिन यह न केवल उनके लिए अपितु पूरे देश और समाज के लिए घातक है।“
“लगता है जैसे मैं संध्या बी.ए. पार्ट वन से नहीं मनोवैज्ञानिक आचार्य संध्या से बात कर रहा हूँ।“
“ऐसा कुछ नहीं है। यह मेरी अपनी सोच है और तुम भी मेरी सोच से असहमत नहीं होगे।“
“मैं पूरी तरह से सहमत हूँ। मेरे विचार से तो यह हमारी संवेदनहीनता ही है जिसने हमारे कुछ साथियों को आतंकवाद, जातिवाद और संप्रदायवाद का पोषक बना दिया है।“
“तुम्हारा कहना ठीक है। मनुष्य को संवेदनशील होना चाहिए, अति संवेदनशील नहीं होना चाहिए। अति संवेदनशीलता और संवेदनहीनता के मध्य बड़ा नज़दीक का रिश्ता है।“
“वह कैसे?”
“अक्सर ऐसा होता है कि अति संवेदनशील व्यक्ति जब आहत होता है तो वह किसी के प्रति संवेदनहीन हो जाता है। वह कठोर, जिद्दी, विद्रोही और क्रूर हो जाता है। समाज के लिए नासूर बन जाता है। संवेदना सबमें होती है। उसका समन्वित रूप व्यक्ति को सफल सामाजिक व्यक्ति बनने में सहायता करता है लेकिन उसकी अतिशयता कभी कभी व्यक्ति को असामाजिक बना देती है।“
“तुम ठीक कहती हो। यदि युवाओं में समन्वित संवेदनशीलता की भावना का विकास और विस्तार किया जाए तो उन्हें एक उत्कृष्ट नागरिक बनाया जा सकता है।“
“ऑफकोर्स। इसके लिए हम सभी शिक्षित युवावर्ग को आगे बढ़ना चाहिए।“
“यार बड़े गंभीर विषय हैं। एक चना भाड़ नहीं फोड़ सकता। इसमें माथा पच्ची क्यों करें? हम अपनी संवेदनाओं को दिशा दे सकें यही समाज के लिए बड़ा योगदान होगा।“
“गलत। यह समाज को नहीं तुम्हारे अपने हितों के संवर्धन में योगदान होगा। बदले में यदि तुम समाज को कुछ दोगे तो भावनाहीनता और दुश्चरित्रता। अपना उल्लू सीधा करने के लिए तुम साम दाम दंड भेद सब अपनाओगे, सफल हो जाओगे लेकिन समाज तुमसे चतुराई की सीख लेगा। एक ऐसी चतुराई जो व्यक्ति विशेष के लिए लाभकर हो, समाज के शेष व्यक्तियों के लिए अहितकर। नयी पीढ़ी की सोच नई हो। सभी का उत्थान ही उसका लक्ष्य होना चाहिए।“
“ओ.के. , बहुत देर हो गयी अब चलता हूँ। फिर कभी बैठेंगे। बहुत कुछ सीखने को मिलेगा।“
“रितेश मैं तो कहूँगी कि हमलोग एक छोटी सी संस्था बना लें। उसके सभी सदस्य सप्ताह में एकबार मिलकर बैठे। ज्वलंत विषयों पर चर्चा करें। संभव हो तो चन्दा करके दो चार पृष्ठ की मासिक या त्रैमासिक पत्रिका निकाले। पत्रिका में ऐसे लेख प्रकाशित किये जाएं जो युवा छात्र-छात्राओं को वैचारिक मार्गदर्शन दें।“
“तुम्हारा प्रस्ताव प्रंशसनीय है। किंतु क्या इस चिंतन आंदोलन में युवा उत्सुकता दिखाएंगे?”
“हम उनको जोड़ने और दिशा देने के लिए कार्य करेंगे।“
“ठीक है। परीक्षा के बाद इस प्रस्ताव को मूर्त रूप देते हैं।“

परीक्षा के बाद रितेश ने अपने कुछ साथियों से संध्या के प्रस्ताव की चर्चा की। सभी ने एकमत से अपनी सहमति दे दी। ‘छात्र परिषद्’ के नाम से एक संस्था का गठन किया गया। ‘छात्र-ज्योति’ नाम से एक पत्रिका के संपादन का प्रस्ताव भी स्वीकार हो गया। संस्था का महामंत्री और पत्रिका का मुख्य संपादक रितेश को चुना गया। संस्था की तीन बैठकों के पश्चात् पत्रिका के पहले अंक का प्रकाशन सुनिश्चित किया गया। चार पृष्ठ की पत्रिका के प्रकाशन व्यय को सभी ने अपनी पॉकेट मनी से दिया। पत्रिका प्रकाशित हुई। प्रकाशित होते ही वह आलाचनाओं के घेरे में फंस गयी। आलोचक कोई और नहीं वही दस लोग थे जिन्होंने परिषद् का गठन किया था। किसी ने उसे रितेश की जेबी पत्रिका बताया, किसी ने उसे ‘आदर्शवाद का रावण’ बताया तो किसी ने उसे व्यर्थ का प्रयास कहा था। किसी ने सलाह कि नव युवकों के बीच आदर्शों की स्थापना करना चूहों द्वारा बिल्ली के गले में घंटी बाँधने के समान है।“
आलोचना से अविवाहित संध्या ने रितेश से कहा-“ शायद उन लोगों को यह बुरा लगा हो कि उनकी ही उम्र के लोग उन्हें उचित अनुचित का बोध करा रहे हैं।“
“यह कहने की बातें हैं। जब कोई बड़ा बुजुर्ग भले बुरे की बात समझाएगा तो कहेंगे बुड्ढा सनकी है, सठिया गया है। अपनी मौज से काटी, हमें शिक्षा दे रहा है। कोई धर्म गुरु कुछ अच्छी बात समझाएगा तो कहेंगे ढोंगी है। ब्रम्हाण्ड की बताता है। ब्रम्हाण्ड में क्या होता है न इसे मालूम है न इसके श्रोताओं को। व्यावहारिक बात नहीं करता। जब हम कुछ समझाएंगे तो उस पर अनुभवहीनता का आरोप लगाकर उसे निराश करेंगे।“
“फिर?”
“फिर क्या? कुछ नहीं। किसी को समझाना बेकार है। हम दो लोग भी यदि अपने जीवन से कोई आदर्श स्थापित कर सके वही हमारा बड़ा योगदान होगा। दूसरे युवाओं को सुधारने का ठेका मत लो।“
“नहीं रितेश। ना तो यह समस्या का अंत है ना समाधान। हमें इसके आगे कुछ सोचना होगा।“
“संध्या किशोर अवस्था अल्हड़ होती है। युवा दिवा स्वप्न संसार में भटकता है। यह भटकन उसकी चाहत का सैलाब होती है। कभी सैलाब बाँध लगाने से नियंत्रित होता है? नहीं। टकराहटों के बीच जब वह थक कर चूर होता है तो शांत हो जाता है। फिर भी वह फायदे- नुक्सान का अंदाजा नहीं लगाता। ऐसा ही है किशोर और युवा वेग का सैलाब। इसे बहने दो। अपना रास्ता बनाने दो। इसे दिग- भ्रमित मत करो।“
“यदि वह दिग- भ्रमित होने लगे?”
“उनकी सद्बुद्धि के लिए दुआ करो। ठीक वैसे जैसे आपदा से मुक्ति के लिए दुआ की जाती है। जानती हो सोलह वर्ष की अवस्था से अपने जीवन के तीन वर्ष में मैंने महसूस किया है कि किशोर दिशाहीन है। बौद्धिक, आत्मिक, भावनात्मक और व्यावहारिकता के पटल पर वह हताश है। घर में उन्हें बौद्धिक और आत्मिक स्तर पर श्रेष्ठ बनने की नेक सलाह दी जाती है। उनकी भावनात्मक आवश्यकताओं को अनदेखा कर दिया जाता है। वह कुंठाग्रस्त होने लगते हैं या फिर गलत दिशा में चलने लगते हैं।“
“यह तुम कैसे कह सकते हो?”
“इन तीन वर्षों में ट्यूशन के दौरान मेरे संपर्क में आये छात्र-छात्राओं ने मुझे इस निष्कर्ष पर पहुँचाया है। कोई भी होता उनकी इस स्थिति का लाभ उठाता। वह ठगे जाते।“
“अपनी पत्रिका और परिषद् का क्या करना है?”
“बंद कर दो। बिन मांगे ज्ञान बांटना शोभा नही देता। उसका मूल्य भी घट जाता है। ज्ञान भिक्षु को देहरी पर आने दो। तबतक स्वयं को ज्ञान में जितना समृद्ध कर सको करो।“
“क्या बात है? मान गयी तुम्हारे दर्शन को।“
“यह दर्शन नहीं, अनुभव है। अपने जीवन पर प्रयोग का परिणाम है। मैंने सीखा है कि या तो खुद प्रयोग करो, जीवन के बहुमूल्य क्षणों का तर्पण करो, त्याग करो या फिर दूसरों के अनुभव से सीखो। लेकिन किशोर मन इन दोनों में से किसी को नही चुनना चाहता। वह तो यूटोपिया में जीता है। जहाँ न संसार है न व्यवहार। ऐसी स्थिति में उसे निकालना उसके हमउम्र से लेकर बड़ी उम्र वालों का उत्तरदायित्व है। इसका निर्वाह वह मित्र भाव से करे तो बहुत बड़ी उपलब्धि हो सकती है।“
“लगता है तुम बहुत अध्ययनशील रहे हो।“, संध्या ने सहज भाव से कहा।
“मैं और अध्ययनशील?” कहते-कहते रितेश खिलखिला कर हंस पड़ा।
“क्या हुआ?”
“सुनोगी तो यकीन नहीं करोगी।“
“क्या?”
“यही कि मैं कितना अध्ययनशील रहा हूँ।“
“क्यों।“
“क्योंकि मैं पढ़ने- लिखने से कोसों दूर रहा। कक्षा पांच में सीधे दाखिला पाने के बाद मैं कभी पास नहीं हुआ। हमेशा फेल होता रहा। जीवन की किताब से जो सीखा है वही मेरा अध्ययन है। लेकिन आज के इस भौतिकवादी युग में इस अध्ययन और ज्ञान की कोई उपयोगिता नहीं। आज सिर्फ कागज़ पर प्रमाणित ज्ञान की डिग्री चाहिए। वह डिग्री जो कई नामों से बिक रही है। इन डिग्रियों ने हमारे मन एवं मस्तिष्क को कुंद कर दिया है। हमारी मौलिकता पर डाका डाल दिया है। आज उस डिग्री की ज़रूरत नहीं जिसे कबीर, नानक या हमारे ऋषि मुनियों ने प्राप्त किया था।“
संध्या मंत्रमुग्ध होकर रितेश को सुनती रही। “देखना तुम एकदिन बहुत बड़े लेखक या समाज सुधारक बनोगे रितेश।“
“यह गालियाँ कम से कम मुझे मत दो। लेखक हो गया तो कौन पढ़ेगा- आलोचक। सुबह से शाम तक मेरे जीते मरते गिद्ध की भाँति मेरी खाल खीचेंगे। कुछ सीखने वाला पढ़ेगा नहीं। समाज सुधारक हो गया तो प्रतिष्ठा कलंकित होगी। कहते हैं काजर की कोठरी में कैसो सयानो जाए कालिमा लगी है तो लगी है।“
“उफ़ मैं हार गयी।“
“चलो इससे पहले कि तुम बोर हो यह बैठक समाप्त की जाए। अब न परिषद् और न पत्रिका। जुलाई से फिर वही पठन-पाठन जो अगले तीन वर्षों तक चलेगा। उसके बाद ही कुछ सोचा जाएगा।“

क्रमशः …

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