1 : असंभव, मैं सुनता हूँ
और मुक्तिबोध की किताब में रखी तुम्हारी
एक मात्र तस्वीर को छूकर,
भूल जाता हूँ
उस आकांक्षा के चिन्ह
जिन्होने मेरे भीतर बिल बना रखे हैं
किंतु चिंतित हूं कैसे बच सकूंगा
इस बिल में पलते सर्पों से
जिनसे कभी अनजाने में, मैंने स्नेह किया था
अपने सामाजिक जीवन की डोर समझकर .
2 : अर्थशास्त्र पढ़ते हुए जब तुमने
प्रेम जैसे हर पागलपन को छोड़ने का संकल्प लिया था
ठीक उसी क्षण मैंने महसूस किया कि
मेरा पागलपन
सभ्य समाज के लिए खतरा है
3 : ” जाना” इतनी भयावह क्रिया है
कि स्टेशन पर खड़े आदमी को लगता है
दुनिया वहां, ट्यूबबेल में फंस चुकी है
जहाँ लोग पुकारती हुई आवाजों से
बेपनाह नफरत करते हैं
4 : मैं तुमसे कहता हूँ
कि मैं तुमसे बात नहीं करूंगा
और मैं पाता हूँ कि जैसे मुझमें न शब्द रहे, न स्वर,
और मैं किसी से बात नहीं कर पाता
और मेरा मौन भी एक
अंतर्विरोध बन जाता है
एक लंबी अवधि के लिए.
तुम्हें देखने से देह ने जाना आँख होने का अर्थ
तुम्हें सम्बोधित करने से
शब्द और स्वर की सार्थकता,
तुम्हें देखते हुए मैं सोचता हूं
कि तुम्हारे सिवा
कुछ भी तो नहीं है देखने योग्य
संसार गर इसी स्वर्ग की कल्पना करता है
तो यह मुझे अकेले चाहिए
तुमसे बात करते हुए
मैं सोचता हूं
कितना मौन रहूँ
जिसकी अधिकता समझकर तुम
वह सब पूछ लो
जिनके उन्माद भरे उत्तर,
धैर्य नहीं रखते मेरे भीतर
तुम्हारी अनुपस्थिति ने बताया
देह और आत्मा का अन्तर
अन्तर :जो कभी किसी गुण में समानता नहीं रखता ,
अन्तर जो कभी कभी मैं खोजता हूँ
अपने होने में और तुम्हारे न होने में,
अन्तर जो हर शाम आँखो में कौंध जाता है
गाँव और शहर की दूरी की कल्पना करते हुए.
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