भावनाओं की अर्थी पर
फूल फेंकते हुए जाने की
सहानूभूति के सिक्को को ठुकराकर
पीड़ा से संवाद की .
किसी मासूम बच्ची की उंगली में उलझे
महीन रेशम के धागे सी होती है
20 साल की उम्र
नाकामयाबी में
खुद पर स्याही फेंकने की हरकत
और अल्हड़ इच्छाओं की हत्या का जुर्म
इसी उम्र में करते हैं हम
राजनीति के काले पर्चों पर
बहस करते हुए होंठ कांपने लगते हैं
और फेंक देतें हैं
सूची धिक्कार की
शहर में हैं
तो नकारे जाने की संभावनाओं
और गांव में
क्रमबद्ध तुलना की कुंठाओ के बीच
ईयर फोन के दायरे में
न चाहकर भी घुटती है
उपमाओं और टिप्पणियों से बचने को
20 साल की उम्र
‘दरअसल प्रेम की कोई उम्र नहीं होती’ : का मुहावरा चुभता है सबसे ज्यादा
इसी उम्र में काँपती अंगुलियों में
किसी के स्पर्श की अनुभूति का मर जाना
और स्वयं के लगाए प्रेम पर प्रतिबंध
जेलनुमा कमरे की दीवारों पर उभर आते हैं
अतिमहत्वाकांछा के काले दाग
कुछ न बन पाने की व्यथा के बीच
सुलगती है भविष्य की हवाओं में
बुझ रहे कोयले की तरह ,
काँपती उंगुलियों तोड़ती है
रोज व्यथा की रोटी का टुकड़ा ,
और छिपा लेती है मन के किसी कोने में
लौटने का आग्रह करती किसी स्त्री की तस्वीर
जिंदा रहने को
रोज मरती है…
20 साल की उम्र…
=> मौसम राजपूत