उलझन

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तू रहे आसपास मेरे, फिर क्यों दिल मायूस सा है;
अजीब सी है कशिश मन में, कि तू ख़्वाब या हकीक़त सा है;
हँसती हूँ जब, तो क्यों मन ढूंढता है तुझे ही;
रोती हूँ जब, तो क्यों तुम्हे याद करती हूँ;
मन की तलाश अधूरी रहने का डर है, इसलिये अब हँसने से भी डरती हूँ;
भुला दिए जाने का डर है, इसलिये अब तो रोने से भी डरती हूँ;
कौन हो तुम कहाँ हो तुम, कुछ भी तो पता नहीं;
फिर क्यों..? हर रोज़ , मैं तुमसे मिलती हूँ;
आसपास तो है ख़ामोशी, फिर मन में ये कैसा शोर है;
कैसी है ये उलझन, न जाने किस पतंग की डोर है…

 

———प्राची द्विवेदी————

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