वह एक मुझमे निहित अनेकों को उदासी की घनी काली रुग्ण परछाईयों से बाँधकर,
भर रिक्तता उर, अवसाद अवचेतन में;
गई जो दूर निरीह कहीं,
प्रवासी पक्षी की तरह,
मैं अनेकों से युत;
रहा किन्तु ठीक वैसे ही मूक, शून्य,
शून्य पर सृजन की रेखाएं रचता,
मरू प्रांतर के गडरिए सा;
क्षितिज में खोजता,
अनिर्मित अकल्पित आकृतियाँ…
~ मौसम ~