हे नारी! तू कामिनी,
तू अबला, तू ही रमणी
ये नाम दिए दुनिया ने तुझे
बस अपने कर्म छुपाने को
भावनाओं में बहती हुई
तू भटक रही है दर दर को
निकले थे तेरे पँख उदय में
जो आसमान में उड़ने को
ठहर गयी तू वहीं कहीं
कर्तव्यों को निभाने को
बंध गयी तेरी जीवन डोरी,फिर
एक अनजाना जीवन जीने को
तब ओढ़ लिया सर पर तूने
एक घूंघट, संस्कार दिखाने को
दब गए उसी में वहीं कहीं
जो थे अरमान, सजाने को
उद्देश्य तेरा बन गया वहीं, फिर
एक पौधा नया लगाने को
देख के उसका खिलता चेहरा
मन किया तेरा मुस्काने को
थाम के वो मासूम सी उँगली
चल पड़ी तू जीवन जीने को
दो फूल जो तूने सींचे थे
इक प्यारा परिवार बनाने को
ढूंढ ली तूने खुशी वहीं पर
कुछ खो कर नया कुछ पाने को
तू भूल चुकी थी खुद को कहीं
जो दबी थी तुझमें जीने को
वहीं कहीं से उपज गयी थी
नींव, कुछ नया सा बनाने को
और झोपड़ सी एक बना ली थी
तूने, तेरा समय चुराने को
बन रहा समंदर था, दिल में
ये दुनिया पूरी डुबाने को
पर ठहर ज़रा सा, दो पल को
देख नज़र उठा कर ज़माने को
कुछ हैं तेरे संगी साथी
मन को थोड़ा भरमाने को
वहीं कहीं पर हैं बिखरे, चुन ले
पल कुछ, हँसने हँसाने को
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~अनीता राय~
Ast. Teacher
UP BASIC EDUCATION DEPARTMENT