तनय नहीं तनया हूँ मैं,
विषय पुरातन है, परंतु अध्याय फिर भी नया हूँ मैं,
जन्म मेरा तो प्रभु की इच्छा है ,
अन्यथा अनिच्छा हूँ मैं।
तनय नहीं तनया हूँ मैं-
अनगिनत सम्बन्ध मेरे,
पर सम-बन्ध एक भी नहीं
बँटी हुई हूँ खंड खंड
हर खण्ड में समर्पण अखण्ड
कर्तव्य मेरे है कई , अधिकार मेरे कुछ भी नहीं
क्यों ?
क्योंकि तनय नहीं तनया हूँ मैं ?
दया हूँ मैं, करूणा हूँ मैं, शील और लज्जा हूँ मैं,
स्नेह की अस्थि हूँ मैं, नेह की लज्जा हूँ मैं।
धैर्य हूँ, धीरज भी हूँ-
धागा प्रेम का कच्चा हूँ मैं।
तनय नहीं तनया हूँ मैं-
स्वर्ण थी मैं, ये आज जाना,
जब, मैं तपकर हुई कुंदन।
फिर भी मेरे भाग में क्यों है, इतना रुदन इतना क्रन्दन,
क्यों नहीं वंदन, नमन, अभिनन्दन।
क्योंकि,
तनय नहीं तनया हूँ मैं ?
~ गीतांजलि शुक्ला ~