ए दुनिया के व्यभिचारी पुरुष!!!
खोखले दंभ की हुंकार भरते तुम,
क्या दोगे एक स्त्री के कुछ सवालों का जवाब?
क्या तुम कर पाओगे आज ख़ुद को ही बेनक़ाब?
एक तीन साल की बच्ची, क्या दिखता है तुम्हें उसमें?
जीवन की आयी ही नहीं अभी समझ जिसमें,
तुम्हारी कौन सी तृष्णा को वो जागृत कर जाती है?
अपनी कौन सी अदाओं से वो तुम्हें लुभाती है?
क्या दिखती नहीं तुम्हें उसकी प्यारी सी मासूमियत?
कहाँ चली जाती उस वक़्त तुम्हारी इंसानियत?
क्या दिखता है तुम्हें, तिहाई उम्र की एक नन्ही बालिका में?
कौन सा तत्व हिलोरें लेता है तुम्हारी रक्त नलिका में?
क्या दिखती नही तुम्हें, जीवन को समझने की उसकी ललक?
अपनी कौनसी विकृत मानसिकता की देते हो तुम झलक?
पूछती है तुमसे आज सपने बुनती हुई वो युवती,
क्यों उसके यौवन को समझा कोई सामाजिक संपत्ति?
प्रेम वो उसका, भाव असीमित, साथ में विश्वास प्रबल,
जब जीत सके ना तुम उसको, क्यों लूट लिया उसका मन कोमल?
उसके ढंग पे, वस्त्रों के चयन पे, क्यों उसका ही अधिकार नहीं?
क्यों छीना उसका गहना, था उसे तुमसे जब प्यार ही नहीं?
जीवन की परीक्षायें देती प्रौढ़ा में तुम्हें क्या दिखता है?
क्या तुम्हारे घर में तुम्हें यही ज्ञान मिलता है?
लालन-पालन, गृहस्थी के बीच वो फंस सी जाती है,
उस पड़ाव पर भी, तुम्हारी कौन सी विक्षिप्त चेतना को जगाती है?
अपनी वृद्धावस्था में वो तुम्हें कैसे ललचाती है?
उसकी परिपक्व हो चुकी उम्र भी क्या तुम्हें बहकाती है?
उसकी झुर्रियां देख के भी क्या तुम्हारा हृदय नहीं पिघलता?
उसके एहसासों की अर्थी से क्या तुम्हारा इंसान नहीं मचलता?
क्या आज बताओगे तुम एक स्त्री को पुरुषत्व की परिभाषा?
अपनी अस्मिता के लुटेरे से वो कैसे बाँधे कोई आशा?
क्यों उसके हर पड़ाव पे तो तुमने उसे लूटा है?
तुम्हारा सहारा, रक्षक होने का दिखावा कितना झूठा है?
अपने आडंबर से तुमने क्यों एक स्त्री को हर क़दम छला है?
क्या उसे एक वस्तु समझने का पुराना ही ये सिलसिला है?
पुरूष के रूप में छिपे हैं तुममें कितने दानव?
कैसे कहे एक पशु भी तुम्हें, ईश्वर की उत्कृष्ट कृति, मानव????
~अनीता राय~