स्कूल से घर आकर रितेश ने सबसे पहले टाइम टेबल बना डाला। शाम के तीन घंटे यारी दोस्ती के लिए रखे। आठ से ग्यारह बजे का समय पढ़ाई के लिए। इसी की एक-एक कॉपी उसने विजय, शिवनाथ और सुशील को अगले दिन दे दी। सभी बहुत खुश थे। लेकिन सभी को शंका थी कि इस पर अमल कैसे होगा?
“देख यार मेरे जीवन में घूमने-घामने का महत्त्व नहीं है। मैं शाम को नियम से दो घंटे मंदिर में पूजा करता हूँ। शेष समय पढ़ाई में लगाता हूँ।“, सुशील ने कहा।
“और मैं समय का पाबंद न रहा हूँ, न हो सकता हूँ। पढ़ूंगा लेकिन नियम में बंधकर नहीं। जब मूड होगा, पढ़ूंगा वरना मौज मस्ती करूँगा। नहीं भी पढूँगा तो क्या नुकसान? मुझे तो दूकान पर ही बैठना है।“, शिवनाथ ने बड़े सहज स्वर में समय-सारिणी का प्रतिवाद किया।
“दद्दू ठीक कह रहा है। अबे बंधनों में क्या जीना है। समय के पैबंदो से ज़िन्दगी नहीं चलती। अपुन तो मूड पर चलेगा। तू चल समय- सारिणी पर।“ विजय ने भी समय- सारिणी से अपनी असहमति प्रकट की।
“मगर मेरे यारो अपुन तो समय-सारिणी को ही अपनाएगा। मेरे पढ़ाई के समय में तुम लोग मुझे डिस्टर्ब नहीं करना।“
“ठीक है। हमसब तेरी सुविधा का ख्याल रखेंगे। अच्छा यह बता कि विजया, मीरा और सुशील से पढ़ने का वक़्त कब निकाला है? नहीं पढ़ेगा तो राठौर सर को क्या जवाब देगा?”
“देख मुझे तो कुछ नहीं पढ़ना है। यदि लगा कि किसी टीचर की जरुरत है तो तब समय-सारिणी में फेरबदल कर लिया जाएगा।“
“और मान ले इन तीनों ने या किसी एक ने तुझसे अंग्रेजी पढ़ाने को कहा तो कौन सा समय देगा? तेरी समय-सारिणी में किसी को पढ़ने के लिए समय दिया ही नहीं है।“
“जब कोई पढ़ने की बात करेगा तो वह भी देख लिया जाएगा।“, रितेश ने कहा।
“पता नहीं तेरी समय-सारिणी है या रबर की तश्तरी जिसे अपने हिसाब से घटाता-बढ़ाता रहेगा।“
“तू देखता चल।“
प्रार्थना के लिए घंटी बज गयी थी। चारो की मंडली प्रार्थना स्थल पर पहुँच गयी। सभी एक के पीछे एक खड़े हो गए। प्रार्थना मॉनिटर ने टोका “कद के क्रम में खड़े हो। विजय तुम सबसे पीछे जाओ। शिवनाथ और सुशील तुम दोनों आगे खड़े हो। रितेश तुम बीच में खड़े हो।“
न चाहते हुए भी चारो को अलग-अलग खड़ा होना पड़ा। प्रार्थना के बाद पंक्तिबद्ध बच्चे कक्षाओं की ओर चलने लगे। विजय अपनी चुहुल बाजी के लिए विख्यात था। वह पीछे से भाग कर रितेश के पीछे पंक्ति में चलने लगा। रितेश को यह अच्छा नहीं लगा।
“विजय डिसिप्लिन भी कुछ होता है। तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिए। जाओ पीछे खड़े हो।“
“अबे अब तो क्लास आ ही गया।“
“तो क्या? राठौर सर ने देख लिया तो अच्छा नहीं होगा।“
“साला इम्प्रेशन बनाना चाहता है। ऐसा है तू चल। इम्प्रेशन बिगड़ेगा तो मेरा- तेरा क्या जाएगा?”
संयोग से राठौर सर हाजिरी रजिस्टर लेकर पंक्ति के साथ चल रहे थे। विजय को देखकर बोले, “रितेश तुम चार एक साथ कैसे चल रहे हो? अपने मित्र को अनुशासन नहीं सिखा सकते?”
रितेश को काटो तो खून नहीं।
“देखो इम्प्रेशन किसका ख़राब हुआ? तू तो अपनी हरकतों के लिए मशहूर है। मेरा भी नाम तेरे साथ जुड़ जाएगा। विजय ख़ुदा के लिए अनुशासन में रहो। राठौर सर के सम्मान को ठेस पहुंचे, मुझे बर्दाश्त नहीं होगा।“
“ठीक है, लो मैं पीछे चला जाता हूँ।“ खिसियाकर विजय पंक्ति में अपने स्थान पर चला गया। उसदिन विजय ने रितेश से कोई बात नहीं की। छुट्टी के समय भी रितेश ने उससे बात करनी चाही लेकिन वह बिना कोई जवाब दिए चला गया। इसके बाद बीस दिन तक दोनों में कोई बात नहीं हुई। एकदिन रितेश ने देखा विजय लंगड़ाता हुआ सामने से चला आ रहा है। “अमाँ लंगड़ाते हुए कैसे चले आ रहे हो?”
विजय ने कोई उत्तर नहीं दिया।
रितेश ने फिर पूछा “अरे भाई क्या हो गया? कैसे लंगड़ा रहे हो?”
“कुछ नहीं, पैर में मोच आ गयी है।“
इसके आगे फिर कोई बात नहीं हुई। प्रार्थना के बाद जब कक्षा में आये तो कक्षा में खुसफुसाहट चल रही थी। रितेश जैसे ही कक्षा में आया, लड़कियां उसे घूरने लगी। वह कक्षा की असामान्य स्थिति से अंजान अपनी कुर्सी पर बैठ गया।
राठौर सर आये। हाजिरी ख़त्म करके उन्होंने कहा- “रितेश स्टैंड-अप।“
रितेश अपने स्थान पर खड़ा हो गया।
“रितेश अपने सहपाठी या सहपाठिनी के शारीरिक दोष का उपहास नहीं करना चाहिए। आज तुमने ऐसा किया है, जिसका मुझे सख़्त अफ़सोस है। मैं तुम्हें एक बहुत सुसंस्कृत छात्र समझता हूँ। भविष्य में तुम ऐसा नहीं करोगे।“
“सर लेकिन मैंने ऐसा कुछ नहीं कहा।“
“झूठ मत बोलो। तुम जानते हो कि शीला के एक पैर में खराबी है। वह लंगड़ा कर चलती है। आज जब वह आ रही थी तो तुमने उसका उपहास उड़ाया। तुमने कमेंट पास किया था। याद आया।“
“सर यह गलत है। मुझे तो अब तक नहीं पता कि शीला लंगड़ा कर चलती है। शीला के पीछे विजय आ रहा था। मैंने उससे प्रश्न किया था कि वह लंगड़ा कर क्यों चल रहा है। आप चाहे तो विजय से पूछ लीजिये।“
“सर रितेश ने मुझसे पूछा था। मेरे पैर में मोच आ गयी थी। मुझे लंगड़ाता देख उसने मुझसे लंगड़ाने का कारण पूछा था।“ विजय ने स्थिति स्पष्ट करनी चाही।
“खैर आगे से ध्यान रखना कि तुम्हारे किसी भी वाक्य से किसी को गलत- फ़हमी न हो जाए।“
राठौर सर चले गए थे। रितेश का मन बेचैन हो उठा था। वह उनसे मिलने स्टाफ रूम पहुँच गया।
“क्या बात है रितेश?” राठौर सर ने पूछा।
“सर, आपको गलत सूचना दी गयी। मैं शीला के पैर के दोष के बारे में कुछ नहीं जानता। मैंने उस पर कोई व्यंग नहीं किया। आप मुझे गलत मत समझे सर। मैं आपका बहुत सम्मान करता हूँ। आपने मुझे गलत समझ लिया तो मैं पढ़ न पाउँगा। फिर फेल हो जाऊंगा सर।“
“जाओ शीला को बुलाकर लाओ।“ राठौर सर ने कहा।
शीला के आते राठौर सर ने कहा, “शीला विजय तुम्हारे पीछे आ रहा था?”
“जी।“
“देखो वह लंगड़ा कर चल रहा है?”
“जी”
“तो शायद अब तुम्हें अपनी गलती का एहसास हो गया होगा। रितेश ने तुम्हारा उपहास नहीं उड़ाया था। उसने विजय का हाल पूछा था।“
“जी मुझसे गलती हो गयी।“, शीला ने कहा।
“बिना सोचे समझे किसी पर शक करना ठीक नहीं होता। भविष्य में इस बात का ध्यान रखना। रितेश तुम शीला के लिए मन में खोट मत रखना। उसकी नासमझी थी जो उसने तुम्हारे शब्दों को उपहास मान लिया। जाओ बी फ्रेंडली।“
दोनों एक दूसरे को कनखियों से देखते और मुस्कुराते क्लास वापस आ गए। क्लास में चर्चा गर्म थी। रितेश को सज़ा सुनाई गयी होगी। जब दोनों ने अपने-अपने मित्रों को सब कुछ बताया तो सभी के मन में रितेश की इमेज की धाक जम गयी।
अधिकांश टीचर्स उसदिन छुट्टी पर थे। कोई पीरियड नहीं लगा। लड़के-लड़कियां अपने-अपने झुण्ड बनाये बाहर मैदान में पेड़ों के झुरमुठ के नीचे बैठे गप्पेबाजी में लगे थे। लड़कों ने स्कूल से बाहर भागने का प्रयास किया था लेकिन भाग नहीं पाए। स्कूल के गेट पर तैनात काला, मोटा, लाल आँखों और मोटी-मोटी मूछें वाला चौकीदार छात्रों के लिए भय का पर्याय था। उसकी एक घुड़की छात्रों का पसीना बहा देती थी। वह प्रिंसिपल का मुंह लगा भी था। लड़कों ने भागना चाहा था लेकिन उसकी घुड़की के आगे घुटने टेक दिए थे। किसी तरह से दिन कटा। छुट्टी की घंटी बजते ही सब आज़ाद पंछी की भाँति भाग निकले। शीला अकेले क्लास में दरवाज़े पर खड़ी थी। जैसे उसे किसी की प्रतीक्षा हो। रितेश को आते देख धीरे-धीरे गेट की ओर बढ़ने लगी।
रितेश और विजय तेज़ चाल से चलते हुए शीला से आगे बढ़ गए थे। शीला ने आवाज़ दी।
“रितेश”
रितेश ने पलट कर देखा, शीला खड़ी थी।
“अबे देखता क्या है, जा बुला रही है। क्या बात है? लंगड़ा मैं हुआ, दोस्ती तेरी बढ़ी। जा भाई। देर क्यों कर रहा है? मुबारक हो नयी दोस्ती।“
रितेश सकपकाया, शीला के पास पहुंचा।
“रितेश तुमने मुझे माफ़ कर दिया?”
“किस बात की माफ़ी?”
“मेरी नासमझी के कारण तुम्हें राठौर सर के सामने अपमानित होना पड़ा था। मैंने सच में यही समझा था कि तुमने मुझ पर व्यंग किया था।“
“तुम ऐसा क्यों सोचती हो। जब बात स्पष्ट हो गयी तो उसके लिए दोबारा माफ़ी की जरूरत नहीं रही। हाँ जैसा सर ने कहा उसे ज़रूर याद रखना।“
“क्या कहा था सर ने?”
“अभी से भूल गयी। उन्होंने कहा था कि बिना सोचे समझे किसी पर शक करना ठीक नहीं होता। भविष्य में इस बात का ध्यान रखना।“
“और कुछ भी तो कहा था।“
“क्या?”
“वाह तुम भी भूल गए? सर ने कहा था न रितेश शीला के लिए मन में खोट मत रखना।“
“ओ हाँ।“
“यही होता है। दूसरों को समझाने वाली बातें तो सबको याद रहती हैं। लेकिन खुद को समझाने वाली बातें नहीं याद रह जाती।“
शीला की बातों के जवाब में रितेश मुस्कुराया भर था। हिम्मत करके उसने एक प्रश्न किया “और पढ़ाई कैसी चल रही है?”
“पढ़ाई! वह न पूछो।“
“क्यों?”
“सब ठीक है। अंग्रेजी पल्ले नहीं पड़ती। अनुवाद समझ ही नहीं आते।“
“अच्छा।“
“अच्छा क्या, तुम्हें तो जिनका ‘मास्टर’ बनाया गया है, तुम उन्हीं को नहीं पढ़ाते। हम तुमसे क्या उम्मीद रखें?”
“मैंने तो मदद करने को मना नहीं किया।“
“मना तो नहीं किया लेकिन मदद भी तो नहीं की।“
“भाई मुझे क्या मालूम किसी को मुझसे कुछ पूछना है। पूँछने वाला तो कोई भी नहीं आया।“
“सच बोलूं तुम इतने गंभीर रहते हो कि किसी को साहस नहीं होता कि वह तुमसे बात करे। तुम्हारा मूड ही किसी को नहीं समझ आता। अच्छा सच सच बताओ तुम सचमुच गंभीर हो कि इम्प्रैशन मारने के लिए गंभीरता का कवच ओढ़े रहते हो?”
“इस बारे में मुझे कुछ नहीं मालूम। जो जैसा समझे ठीक है। इतना अवश्य है कि कोई भी मुझसे कुछ पूछेगा तो मेरा मूड कोई बाधा नहीं खड़ा करेगा।“
“तो तैयार रहो। कल से हमलोग इंटरवल में तुमसे अंग्रेजी सीखेंगे। ओ. के.?”
“ओ के”
बात खत्म हो गयी थी। शीला जा चुकी थी। विजय अबतक रितेश का बेसब्री से इंतज़ार कर रहा था। रितेश को वहीँ खड़ा देखकर विजय चीख पड़ा।
“अबे अब तो खिसक। अब कोई बात करने नहीं आ रही है।
रितेश के पास आते ही विजय ने सवालों की झड़ी लगा दी थी।
“क्या बात हुई? मोहब्बत का बीज रोपण हो गया क्या? अब कब मिलेगा? कितनी देर बात होगी?
रितेश ने सभी प्रश्नों के उत्तर में कहा, “कल से मुसीबत बढ़ गयी।“
“क्या वह लंगड़ी फिर से गलत-फ़हमी का शिकार हो गयी?”
“यार किसी के शारीरिक दोष का मखौल नहीं उड़ाते।“
“हाँ बेटा हाँ, खूब शिक्षा दे रहा है। लगता है पटरी बैठ गयी है।“
“विजय।“
“अबे मेरे ऊपर चीखने से क्या होगा? अगले कुछ दिनों में सब सामने आ ही जाना है।“
“सामने वह आता है जो छिपा हो। यहाँ तो कुछ भी छिपा नहीं है। कल से हो सकता है इंटरवल में तेरे साथ मटरगश्ती न कर सकूं। मास्टर का रोल निभाना होगा।“
“अबे मास्टर बन गया? किसका?”
“मुझे खुद नहीं पता, कल ही पता चलेगा।“
“अबे तू झूठ पे झूठ क्यों बोल रहा है?”, विजय ने चीख कर पूछा। “नहीं बताना चाहता तो मत बता। तौबा तेरी दोस्ती से।“
रितेश ने कोई जवाब नहीं दिया। कुछ दूर साथ-साथ चलने के बाद एक मोड़ से दोनों ने अपने-अपने घरों का रास्ता पकड़ लिया।
अगले दिन भी विजय रितेश से नहीं बोला। लेकिन सुशील और दद्दू को कल के प्रकरण के बारे में जानकारी जरूर दे दी थी।
“मास्टर जी कोचिंग कब से शुरू होगी।“ ,दद्दू ने चुटकी ली थी।
“जब से पढ़ने वाले आ जाएंगे।“
“पढ़ने वाले कि पढ़ने वालियाँ?”
“जो तू समझ ले।“
“चल भाई आज से तो इंटरवल में तेरा साथ नहीं रहेगा। लेकिन तू लंच कब किया करेगा?”
“लंच छात्राएं नहीं लाएंगी?” ,सुशील ने चुटकी ली।
“अरे भाई मिश्रित लंच से कुछ बचे तो हमें भी फेंक देना। तुमसे थोड़ी ही दूर पर हमारा भी शान्ति निकेतन खुला रहेगा। वहाँ बैठकर तुम्हें देखेंगे, गालियां देंगे और तेरे सुखमयी भावी जीवन की कामना करेंगे।“
“अबे विजय क्या अंट-शंट बोलता रहता है। कभी तो गंभीर रहा कर।“
“रितेश गंभीर दो ही लोग होते हैं। प्रेम के मारे या बिज़नेस के मारे। हम दोनों में से एक भी श्रेणी में नहीं आते। फिर हम गंभीर क्यों हों?”
“विजय चल। मास्टर को कुछ तैयारी कर लेने दे। पैंतालीस मिनट ही बचे हैं। छात्राएँ आ जाएंगी। पहला दिन है, इम्प्रेशन बनाना है।“
तीनो दोस्त रितेश को ग्राउंड पर अकेला छोड़ कर चले गए। वह असमंजस की स्थिति में क्लास में नहीं गया। गोवर्धन प्रसाद ने हाजिरी लेते वक़्त पूछा, “रितेश कहाँ है?” सब की निगाहें पीछे की सीट पर जा टिकी। वह वहां नहीं था।
“सर वह बाहर ग्राउंड में है,” विजय ने कहा।
“वहाँ क्या कर रहा है?”
“कुछ पढ़ रहा है “
“बुलाकर लाओ।“
एक पल को क्लास में ख़ामोशी हो गयी। कोई भी उसे बुलाकर लाने के लिए तैयार नहीं था।
“सुशील जाओ रितेश को बुलाकर लाओ।“
सुशील ने वापस आकर जवाब दिया, “सर रितेश चला गया है।“
“इतना गुस्ताख़ है। उसकी यह हिम्मत कि वह बिना छुट्टी लिए ही भाग गया।“
गोवर्धन प्रसाद भन्नाए। उसके बाद अपने विषय पर आ गए। पैंतालीस मिनट तक वह अर्थशास्त्र का महत्त्व पढ़ा कर पीरियड खत्म होने के पांच मिनट पहले चले गए।
सबको उम्मीद थी कि रितेश इंटरवल में जरूर आएगा। लेकिन वह नहीं आया।
दूसरे दिन प्रार्थना के तुरंत बाद गोवर्धन प्रसाद का पीरियड था। क्लास में प्रवेश करते ही उन्होंने पूछा, “रितेश आया?”
“सर”, खड़े होकर रितेश ने हाजिरी दी।
“क्यों मिस्टर आप कल कहाँ थे?”
“……….” रितेश ने कोई उत्तर नहीं दिया।
“मैं पूछता हूँ कल कहाँ थे? मेज पर डस्टर पटकते हुए गोवर्धन प्रसाद ने पूछा।
“घर चला गया था।“
“किससे पूछ कर गए थे।“
“किसी से नहीं पूछा था।“
“कॉलेज को क्या खैरातीलाल की दूकान समझ रखा है। जब मन हुआ आ गए और जब मन हुआ भाग लिए। अरे बाप ने किसलिए भेजा है? पढ़ने के लिए भेजा या आवारागर्दी करने के लिए? बोलता क्यों नहीं?”
“सर पिताजी ने पढ़ने या आवारागर्दी करने के लिए नहीं भेजा है। उन्होंने मुझे सिर्फ पास होने के लिए भेजा है।“, रितेश ने कहा।
“लेकिन तुम्हारे लक्षण पास होने के नहीं लगते। यही हाल रहा तो इस साल क्या अगले कई वर्षों तक तुम इसी जगह बैठे रहोगे।“
“नहीं सर। इस साल यदि पास न हुआ तो मैं पढ़ाई छोड़ दूंगा। कभी नहीं पढ़ूंगा। अनपढ़ भी ज़िन्दगी जीते हैं। शान से जीते हैं। मैं भी जी लूँगा। आप मेरी बिलकुल चिंता न करे।“
“बेशर्म, नालायक, गंवार। कहाँ-कहाँ से ऐसे गधे क्लास में आ जाते हैं। बिलकुल शऊर नहीं है कि क्लास में किससे और कैसे बात की जाये? निकल जा क्लास से। जब तक शऊर नहीं सीख लेता, क्लास में मत आना।“
“ठीक है सर। कभी आपकी क्लास में नहीं आऊँगा। आपको पास होकर भी दिखाऊंगा।“, कहते-कहते रितेश हवा की तेज़ी से क्लास से बाहर चला गया।
गोवर्धन प्रसाद उसे घूरते रह गए। वह नहीं रुका।
“बड़ा बेअदब है।“, गोवर्धन प्रसाद बुदबुदाये।
“बड़ा इम्पर्टीनेन्ट है सर।“, विजया बोली।
“ अनकल्चर्ड है।“, मीरा ने टिप्पणी दी।
पिछली सीट पर बैठा विजय धीरे से बोला ताकि मीरा सुन ले ,”अपने मास्टर के लिए ऐसे बोला जाता है।“ मीरा ने सुनी-अनसुनी कर दी।
तीन पीरियड के बाद इंटरवल हुआ। रितेश नहीं था। चौकीदार से पूछा। उसने बताया वह सामने टॉकीज़ की कैंटीन में बैठा कॉफ़ी पी रहा है।
“तुमने उसे जाने दिया?” ,विजय ने पूछा।
“क्या करता? शाम को उसके चार दोस्त डंडों से मेरी हजामत बनाते तो मुझे कौन बचाता?”
“लेकिन वह ऐसा तो नहीं है।“, विजय ने कहा।
“वह भले ही ऐसा न हो उसके संगी साथी शहर के जाने-माने बदमाश हैं। बात पीछे चाक़ू दिखाते हैं। कौन उसके मुँह लगे?”
इस घटना के बाद लगातार एक सप्ताह तक रितेश स्कूल नहीं आया। वह स्कूल का रेगुलर छात्र नहीं था। उसका नाम भी हाज़िरी रजिस्टर में दर्ज नहीं था। प्रिंसिपल ने उसे विशेष रूप से कक्षा में बैठने की अनुमति दे दी थी। इसलिए उसके बारे में किसी भी टीचर को कोई ख़ास चिंता नहीं थी।
एक दिन राठौर सर ने अवश्य पूछा था,”कई दिनों से रितेश नहीं दिखा। कहाँ है वह?” विजय ने खड़े होकर गोवर्धन प्रसाद सर के साथ घटी संपूर्ण घटना को हू-बहू बता दिया। राठौर सर ने शांत भाव से सब सुना। मुस्कुराते हुए बोले, “कल उसे बुलाओ। कहना वह मुझसे मिल ले।“
“ठीक सर।“ विजय ने हामी भर दी।
बाद में वह सोचता रहा कि आखिर वह रितेश को सन्देश देगा कैसे? वह साहस नहीं जुटा पा रहा था कि उसके घर कैसे जाए? कौन मिलेगा? वह क्या पूछेगा? तभी उसके मन में एक विचार आया। टॉकीज़ की कैंटीन में जाकर देखे। शायद वहीं वह बैठा रहता हो। वह इंटरवल की प्रतीक्षा करने लगा। उसका पढ़ाई में मन नहीं लगा। जैसे ही छुट्टी की घंटी बजी वह बिना लंच किए चौकीदार के पास गया।
“चच्चू मुझे टॉकीज़ तक जाने दो, बहुत ज़रूरी काम है।“
“काम है तो परमिशन स्लिप लाओ।“
“वह नहीं है।“
“फिर लौटो। छुट्टी के बाद जाना।“
“चच्चू जानते हो वह अपना रितेश है न वह अपने दल-बल के साथ किसी को नापने आ रहा है। उसे समझाना है।“
“क्या समझाएगा उसे? वह नापेगा तो वह भी नपेगा।“, चौकीदार ने कहा।
“चच्चू बात समझा करो। और सुनो तुम ज्यादा लभेड़ करोगे तो तुम्हारा ही बैंड बजा दिया जाएगा। रोको मुझे।“
इस धमकी के आगे चौकीदार ने अनुशासन का हथियार डाल दिया। उसने विजय को बाहर जाने की छूट दे दी।
विजय ने कैंटीन में उसे तलाशा, वह वहाँ नहीं था। कैंटीन के मालिक ने बताया कि वह एक सप्ताह से नहीं आ रहा है। विजय निराश लौट आया।
अभी वह क्लास में प्रवेश ही करता कि शीला ने उसे रोका।
“क्यों मिला रितेश।“
“नहीं।“
“विजया कह रही थी आजकल वह नहर के किनारे एक खजूर के पेड़ के नीचे बैठे पढ़ता रहता है। वह वहाँ कब आता है, वहाँ से कब जाता है, नहीं पता। विजया ने दो तीन दिन पहले उसे स्कूल टाइम पर वहीं बैठे देखा था।“
“आईडिया। साले को घर लाऊँगा।“
दूसरे दिन विजय स्कूल नहीं आया। वह अपना बैग लेकर नहर के किनारे पहुँच गया। रितेश एक पेड़ के नीचे बैठा माउथ ऑर्गन बजा रहा था। पास में किताबों से भरा बैग रखा था।
“अबे तू यहाँ।“ विजय को पास आता देख रितेश ने माउथ ऑर्गन बंद कर दिया।
तुझे ढूंढने चला आया। तेरे बिना क्लास सूना-सूना सा लगता है। जैसे क्लास की जान ही चली गयी हो।“
“अब क्लास में जाने का मन नहीं करता। जहाँ कोई कुछ सुनना और समझना नहीं चाहे फिर भला ऐसी जगह क्यों कर जाया जाए।
“अबे यार तू वहाँ पढ़ने आया है कि लोगों को समझाने आया है?”
“एक बात साफ़ सुन ले। मेरे बारे में घर में एक ही धारणा है कि मैं पढ़ नहीं सकता। माँ जरूर कहती है मैं पढ़ूंगा और नेक इंसान बनूंगा। उन्हीं के कहने पर पिताजी ने मुझे यहाँ भेजा है। मैं सिर्फ पास होने आया हूँ। ज्यादा कुछ पढ़ने लिखने नहीं।“
“तो तू पास होने के गुर लेने भी क्लास में नहीं आता।“
“कौन देगा गुर?” तूने तो देख लिया न गोवर्धन प्रसाद ने क्या कहा था? उसने भी वह शब्द दोहरा दिए जो लार्ड हडसन कान्वेंट का रिचर्ड श्रौफ मुझसे कहा करता था। मैं कितनी भी मेहनत क्यों न कर लूं उसका एक ही जुमला होता था मैं पास नहीं हो सकता। मैथ्स मुझे कभी नहीं आ सकती। उसके इन निराशाजनक वाक्यों ने मेरा मन पढ़ाई से दूर कर दिया था। निरंतर फेल होने के कारण मेरे घर में भी सबको विश्वास हो गया था कि मैं मजदूरी करके ही जिंदगी जी सकूंगा। यहाँ भेज कर घर वालों ने एक सट्टा लगाया है। लेकिन तुम लोगों की बेबाक दोस्ती, अपनेपन का खुला एहसास, राठौर सर का स्नेह और माँ का विश्वास, सबने मिलकर मेरे जीवन को जैसे बदल दिया। स्कूल से मेरा मन उचट गया है। मैं अब वहाँ नहीं जाऊँगा। इसी वृक्ष के नीचे बैठकर एकलव्य की भांति साधना करूँगा। माँ के विश्वास को सत्य करके दिखाऊँगा विजय।“
“लेकिन तू राठौर सर से जरूर मिल ले।“
“हाँ उन्होंने बुलाया है तो कल उनसे मिलने आऊँगा।“
क्रमशः ….