फेल न होना … पार्ट -5

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फिर रात के दस बज गए थे, रितेश घर नहीं आया था। उसका किसी को इंतज़ार नहीं था। पिताजी खाना खाकर सो गए थे। माँ नीलेश और निधि को पढ़ाने में व्यस्त हो गयीं।
अचानक किसी ने ज़ोर से दरवाज़ा खटखटाया। माँ ने दरवाज़ा खोला। बनर्जी बाबू सामने खड़े थे। “मैडम आपका बेटा मेरा कुत्ता चुराकर लाया है। नौकर कुत्ते को घुमा रहा था। उसे धमकाया और कहा कि कुत्ता उसे दे दे और घर जाकर कह दे कि बाहर के बदमाश आये थे, चाकू की नोक पर कुत्ता छीन कर ले गए।“
“बनर्जी बाबू कुत्ते का बच्चा वह लाया तो है शाम को। आप देख लें यदि वह आपका है तो ले लीजिए। वह बड़ा बदमाश है।“
कुत्ता देखते ही बनर्जी दादा ने कुत्ता गोद में उठा लिया और चेतावनी देते हुए चले गए कि वह रितेश को सुधार लें वरना वह एक दिन बड़ी मुसीबत बन जाएगा।
माँ ने कुछ नहीं कहा। सामान्य भाव से बच्चों को पढ़ाने में लग गयीं। उन्हें सुलाने के बाद वह रात भर जागती रहीं। उस रात उन्हें नींद नहीं आई। वह लगातार बैठक की खिड़की से बाहर झाँक-झाँक कर रितेश के आने की बाट जोहती रहीं। अंत में थक कर एक बजे वह सो गयी। रितेश कब आया और कब बाहर बरामदे में सो गया, उन्हें पता नहीं चला।
सुबह जब वह दूध लेने बाहर गयी तो देखा रितेश एक कुर्सी पर गहरी नींद में सो रहा था।
“रितेश” कुछ सख्त आवाज़ में उन्होंने पुकारा।
“हूँ”
“तू कब आया?”
“……….”
“बोलता है कि लगाऊँ दो हाथ?”
“दस बजे आया था।“
“झूठ मत बोल। तू एक बजे के बाद आया है।“
माँ ने सख्त स्वर में कहा।
“हो सकता है।“ बड़े ही सहज भाव से रितेश ने जवाब दिया।
“तू कहाँ था?”
“पिक्चर देखने गया था।“
“पैसे कहाँ से आये?”
“पैसे वह मनोज ने दिए थे।“
“झूठ”
“झूठ तो झूठ सही। मत पूछो मुझसे कुछ।“ झुंझलाते हुए रितेश बोला और तेजी से अपने कमरे में जाकर सो गया।

शाम को घर आते ही पिता ने पूछा “कहाँ हैं लाट साहब?”
“बता कर नहीं गया है।“
“आज बनर्जी उसकी शिकायत लेकर आया था। उसका कुत्ता चुरा लिया था। यह भी मैंने उसे सिखा दिया होगा?”
“मैं कब कहती हूँ तुमने उसे सिखा दिया होगा।“
“फिर क्या है यह सब? जब से यहाँ आया है सिर्फ उसकी शिकायतें सुनने को मिलती हैं। कैसे ठीक करोगी बिगड़े नवाब को? मैं तो कहता हूँ इसे घर से तुरंत निकाल बाहर करो, तभी हम चैन से जी सकेंगे वरना नहीं।“
माँ खामोश सब सुनती रही। मन-ही-मन रोती रही।
मिस्टर आनंद के सो जाने के बाद उन्होंने नीलेश और निधि को सुला दिया। स्वयं बैठक में जाकर रितेश के आने का इंतज़ार करने लगी। जैसे ही डेढ़ बजे उसने घर में कदम रखा, उन्होंने रितेश को दरवाज़े पर ही रोक लिया।
“रितेश इतनी रात गए कहाँ से आ रहा है?”
“कुछ नहीं। सामने रोड पर दोस्तों के साथ गप्प कर रहा था।“
“गप्पों के आगे खाने का भी होश नहीं रहा तुझे?”
“माँ खाना खा लिया।“
“कहाँ खाया?”
“अरे माँ वह गाँव वाले बैलगाड़ियों में खरबूजा भर कर मंडी ले जाते हैं न। उनकी गाड़ी में सेंध लगाकर खरबूजे गिरा लेते हैं और खा लेते हैं। पेट भर जाता है। गाड़ीवान को कुछ पता भी नहीं चलता।“
“तो तू अब चोर से डाकू बन रहा है? कल कुत्ता चुराने की शिकायत आई और अब खरबूजे की डकैती की शिकायत आएगी। और ऐसे ही एक दिन किसी का घर लूटने की रिपोर्ट भी तेरे खिलाफ लिखी जायेगी। अच्छा नाम कमाएगा। घर की इज़्ज़त पर पानी फेर देगा।“
“कैसी बात करती हो माँ?”
“चुप। मैं तेरी माँ नहीं। मुझे कभी माँ मत कहना। मैं तुझे नहीं समझा सकती। जो जी में आये तू कर।“ कहते-कहते माँ सोने चली गयी।
रितेश भी अपने कमरे में जाकर सो गया।

प्रतिदिन ऐसा होता। रितेश देर रात तक घर लौटता। घर में सब सो चुके होते थे। वह किसी को नींद से नहीं जगाता। स्वयं बाहर पड़े सोफे पर सो जाया करता था। सुबह जब नींद खुलती तो वह घर के अंदर प्रवेश करता। सीधे अपने कमरे में जाकर सो जाता। माँ अब उससे कुछ नहीं कहती। उसका नाश्ता तैयार करके डाइनिंग टेबल पर रख देती। उसका मन करता तो नाश्ता कर लेता था या फिर सारा दिन ऐसे ही बाहर घूमता रहता।
उसके मन में अव्यक्त घुटन, अजब सी बेचैनी और अस्थिरता थी। वह स्वयं नहीं समझ पाता था कि वह क्या चाहता था? न तो उसका कोई सपना था, जो मित्र मिल जाता वह उसी में रम जाता था। उसकी शरारतों से पढ़ाई में गंभीर छात्र उससे कतराते थे। उनसे आँख बचाकर वह उसकी शैतानियों में भयभीत मन से भाग लेते थे। उसकी मित्र मंडली में अधिकांश ऐसे थे जिन्हें पढ़ने लिखने से कोई सरोकार नहीं था। उनके माता-पिता भी उनके भविष्य के बारे में न चिंतित थे न आश्वस्त। वह अशांत घरेलु वातावरण में रह रहे थे। जहाँ पिता शाम को शराब के नशे में धुत होकर घर में छोटी-छोटी बात पर कलह करते थे। मार-पिटाई करते थे। थकान से चूर होकर सो जाते थे। सुबह उठकर काम पर चले जाते थे- इतना ही सीमित था उनका जीवन व्यापार।
ऐसे परिवारों के लड़कों की संगत मिस्टर आनंद को स्वीकार्य नहीं थी। उनका एक सपना था। वह रितेश को उन ऊँचाइयों पर देखना चाहते थे जहाँ वह स्वयं नहीं पहुँच पाए। वह चाहते थे कि उनके जीवन काल में रितेश को एक उत्कृष्ट कैरियर की दिशा मिल जाए, किन्तु रितेश उनके स्वप्न के प्रति असंवेदनशील रहा। उनको इस बात का दुःख था।

जून का महीना ख़त्म हो रहा था। माँ के बार-बार ज़ोर देने पर पिता ने पास के एक स्कूल में नियमित रूप से रितेश के लिए कक्षा में बैठने की व्यवस्था करवा दी। यह बात रितेश को पता चली तो वह जड़वत सुनता रहा।
जुलाई की सात तारीख़ थी। स्कूल खुल गया था। माँ व्यग्र थी कि रितेश ख़ुशी-ख़ुशी स्कूल जाएगा। किन्तु रितेश को जैसे कोई सरोकार ही नहीं था।
“रितेश स्कूल नहीं जाओगे?”
“चला जाऊँगा।“
“चला जाऊँगा नहीं, जाओ। अपनी किताब कॉपियों की लिस्ट लेकर आओ। पढ़ाई शुरू कर दो। फेल हो गए तो अब किसी स्कूल में जगह नहीं मिलेगी।“
“जाता हूँ। कहते-कहते अनमने मन से उठा और स्कूल पहुँच गया।“

यह स्कूल उसके लिए एक नया अनुभव था। यहाँ सह शिक्षा देखकर वह भौचक्का रह गया। क्लास में केवल वही नया छात्र था। सभी की निगाहें उस पर टिकी हुई थी। वह कक्षा में सबसे पीछे की कोने वाली सीट पर जाकर बैठ गया। हाजिरी के समय जब उसका नाम नहीं लिया गया तो सभी बच्चों ने कहा, “सर एक नया लड़का आया है। उसका नाम नहीं लिया गया?”
“कौन है नया लड़का?”, क्लास टीचर ने कहा। रितेश खड़ा हो गया।
“तुमने फीस जमा कर दी है?”
“पता नहीं”
“तो तुम यहाँ कैसे आ गए?”
“माँ ने कहा था जाओ, मैं आ गया।“
“बिना मुझसे पूछे तुम क्लास में आ कैसे गए, दुष्ट बाहर जाओ।“
“मैं बाहर नहीं जाऊँगा, माँ ने कहा है क्लास में बैठना।“
“मैं कहता हूँ तुम बाहर जाओ और प्रिंसिपल से अनुमति पत्र लेकर आओ।“
“मैं न बाहर जाऊँगा, न अनुमति पत्र लाऊँगा। आप स्वयं प्रिंसिपल साहब से पूछ लें।“
“बहुत दुष्ट हो तुम, चलो मेरे साथ।“
“मैंने कहा न मैं नहीं जाऊँगा।“
“बदतमीज़ क्लास टीचर ने उसके दो थप्पड़ जड़ दिए और हाथ पकड़ कर उसे प्रिंसिपल ऑफिस ले गए।
प्रिंसिपल ने बात सुनते ही क्लास टीचर को बता दिया कि रितेश को कक्षा में नियमित रूप से बैठने की अनुमति दी गयी है। वह प्राइवेट छात्र के रूप में कक्षा में नियमित होगा।
“देखा सर मैंने झूठ नहीं कहा था।“
“अच्छा जाओ क्लास में बैठो।“
“लेकिन सर आप सभी सर को बता दीजिए कि मुझे क्लास में बैठने की अनुमति है।“
“ठीक है जो। बता देंगे।“
रितेश गर्व से मुस्कराता हुआ प्रिंसिपल ऑफिस से लौट रहा था। मानो उसने कोई जंग फतह कर ली थी। कक्षा में सभी लड़के लड़कियाँ उसकी सपाट बयानी और निडरता पर खुसुर-फुसुर कर रहे थे। उसके कक्षा में प्रवेश करते ही सब खामोश हो गए। उसको एकटक घूरने लगे। रितेश कक्षा में सबसे पीछे की सीट पर बैठ गया। अभी वह ठीक से बैठ भी नही पाया था कि किसी ने शगूफा छेड़ा, “अरे दादा आ गया।” दूसरे ने ऊंचे स्वर में पूछा, “कौन दादा?”, अमा यही नया छैला। नए ठाठ में है। देखो कैसे तन कर बैठा है?” रितेश ने अनसुना कर दिया। मुस्कराते हुए वह पीछे की सीट पर खामोश बैठ गया। तभी क्लास का सबसे लंबा लड़का उसके पास आकर बैठ गया।
“बॉस आई एम विजय उर्फ लंबू।”
“आई एम रितेश।”
“तो दोस्ती हो जाए”, विजय ने कहा।
“इसमे कौन सी बात है। अभी इसी वक्त से हम तुम दोस्त।” रितेश ने जवाब दिया।
“लेकिन यार दोस्ती तभी चलेगी जब तक तू किसी छोकरी से यारी नही करता। यहां छोकरा-छोकरी किसी को भी किसी की ओर देखना अपराध है। ऐसा लगता है दो दुश्मन राष्ट्रों की आबादी है ये दोनो।”
“देख बे मैं किसी से दोस्ती करने नही जाऊंगा। लेकिन यदि कोई दोस्ती का हाथ बढ़ाएगा इशारों या कनखियों से तो मैं उसका अपमान भी नही करूँगा।”
“अबे यह करके तो तू गजब ढा देगा।”
“कैसा गज़ब?”
“बस देखता चल। सब पता चल जाएगा। और देख वो जो है न क्लास का दद्दू है। नाम है शिवनाथ। बड़ा मस्त है साला। दिल का उदार है। अच्छा दोस्त है। बस किसी के पीछे दीवाना है।” पेस्ट्री का शौक़ीन है। खूब खाता है, दोस्तों को खिलाता भी है।”
“यहाँ दीवाने भी है?”
“दीवाने ही नहीं दीवानी भी है।”
“वह है न जो बीच में बैठी है । नाम है श्यामली। कालीमाई के नाम से मशहूर है। बड़ी खतरनाक है। शक़्क़ी और चुगलखोर। किसी दीवाने या दीवानी की नज़दीकी उसे पसंद नही है। और वह है विजया क्लास की सबसे तेज़ लड़की। हमेशा अव्वल रहती है।”
“अबे साले तुझे तो पूरा इतिहास पता है। अपना भी तो बता ?”
“हमें तो लम्बू कहते हैं। किसी के भी दिल का तम्बू इतना बड़ा नही जो इसे अपने में ढकले। बस पढ़ाई – वडाई में मन ज़रा कम लगता है। फिर भी पास हो जाता हूं।”
“अबे तू मुझसे तो भला है। मैं तो पास ही नही हो पाता।”
“ऐसा क्यों?”
“ऐसा इसलिये की जबसे मैने संस्कृत और मैथ्स पढ़ी है मुझे वह समझ में नही आई। साले दोनो सब्जेक्ट्स के टीचर भी जो मिले, खूसट मिले। समझाते कम थे, डांटते और मारते ज्यादा थे। मुझे तो दोंनो खूसटों ने कह दिया था- तू बेकार पढ़ रहा है। तुझे न मैथ्स समझ आएगी और न संस्कृत। भला फिर तू पास कैसे होगा? छोड़ दे पढ़ाई। बस वही दिन था पढ़ाई से मन हट गया। जब परीक्षा देने बैठता तो यही सोचकर की पास नही हो सकूँगा, उत्तर पुस्तिका किसी तरह भरकर चला आता था। अब क्या होगा कुछ पता नही।”
“गुरु अब सब ठीक होगा । यहाँ एक कंपनी होगी। और कंपनी का हर पार्टनर सफ़ल होगा। मिलाओ हाथ।”
इसी बीच गोवर्धन प्रसाद जी आ गए। अर्थशास्त्र के अध्यापक थे। बहुत बूढ़े थे। कमर झुकी थी। नाक में भारी भरकम फ्रेम का मोटे लेंस का चश्मा लगाते थे। फिर भी उन्हें चीज़ों को देखने में दिक्कत होती थी। बड़ी मुश्किल से हाज़िरी ली। अंत में रितेश का नाम भी पुकारा।
“सर” कहते हुए रितेश खड़ा हो गया।
“तुम आज पहली बार आये हो?”
“बहुत अच्छे सांस्कारिक पिता के पुत्र हो। मन लगाकर पढ़ना। उनका नाम रोशन करना।”
“जी थैंक यू सर।”
“बैठो बेटा।”
“अबे बड़ा अच्छा मास्टर है। कितनी मोहब्बत से बोला? ऐसा तो भद्र मास्टर मैंने कभी देखा नहीं।”
“साले वह भद्र नहीं है। चतुर बुड्ढा है। मेरे साथ तुम्हे देखकर उसे ऐसा लगा कि कहीं वह जोड़ी उसकी नाक में दम न करे। अभी तुझे क्लास के बाद अकेले में समझायेगा।”
घंटी बजते ही गोवर्धन प्रसाद ने अपनी किताबें समेटी । रितेश की ओर मुखातिब होकर बोले,” रितेश ज़रा स्टाफ रूम में आओ ।”
“जी सर।“ कहते हुए रितेश उनके पीछे हो लिया।
“जा बे जा। भगवान् तेरा भला करे। हर पल तुम्हें सदबुद्धि दे। जा भाई जा। सुनकर बता सर ने क्या कहा।“ कहते-कहते विजय दुआ मांगने के अंदाज़ में दोनों हाथ आकाश की ओर उठाए आँख बंद करके होंठ फड़फड़ाता रहा। मानो प्रार्थना कर रहा हो।
कक्षा के सभी छात्र-छात्राएँ विजय को एक टक देखते रहे। जोर-जोर हँसते रहे।
“देखो विजय अच्छा लड़का नहीं है। आवारा किस्म का है। न पढ़ता है, न दूसरों को पढ़ने देता है। अच्छे लड़को की संगत करना। वरना पढ़ाई करना बहुत मुश्किल हो जाएगा।“ रितेश स्टाफ रूम में खड़ा था। गोवर्धन सर उसे समझा रहे थे।
“जी सर”
“और लड़कियों से दोस्ती मत करना। पढ़ नहीं पाओगे।“
“जी सर”
“जेब खर्च के लिए पैसे लेकर कॉलेज न आना। घर से भोजन करके आना या फिर लंच लाया करना।“
“जी सर”
“कॉलेज बहुत सज-संवर कर आने की जरुरत नहीं है।
“जी”
“क्लास से बिना बताए गोल मत होना, समझे।“
“जी सर, मैं आपकी बात का पूरा ध्यान रखूँगा।“
“जाओ”, कहकर गोवर्धन सर टेक लगाकर बैठ गए। रितेश क्लास लौट आया।
तबतक क्लास में कोई दूसरा टीचर नहीं आया था। उसे देखते ही विजय चीखा “क्यों बुड्ढे ने क्या ज्ञान दिया? दोस्ती में नीम तो नहीं बो दिया? रितेश ने भी मुस्कुराते हुए कहा “बोने की कोशिश की थी मगर बो नहीं पाया।“
“थैंक गॉड। कम से कम तुम साहसी तो निकले। तुमने अंधी हामी तो नहीं भर दी।“
“अबे अब किसका पीरियड है?” रितेश ने पूछा।
“अब रसिया दुबे का।“
“रसिया दुबे?”
“अरे हाँ। उसका नाम कुछ भी हो हम लोग उसे रसिया दुबे कहते हैं। तू देखेगा कि लड़को की बातों का जवाब वह गुस्से से देता है। लड़कियों के हर प्रश्न का उत्तर बड़ा मुस्कुरा-मुस्कुरा कर देता है। लेकिन आज कल छुट्टी पर है। पीरियड खाली है। देखो हम बकरे बकरियों को हांकने के लिए किसे भेजा जाता है।“
“आओ दद्दू से मिलवाओ।“, रितेश ने कहा।
“दद्दू-दद्दू”, विजय ने आवाज़ लगायी और एक नाटा मोटा गोल चेहरे का लड़का सामने आ गया। सिर पर कम बाल और निकला हुआ तोंद उसकी पहचान थी।
“क्या है गुरु?”, दद्दू ने पूछा।
“मीट मिस्टर रितेश। अवर बेस्ट फ्रेंड। नॉट दीवाना लाइक यू।“
“काहे बदनाम किये है रे। मैं तो पढ़ने आया हूँ। यह सब मसखरे हैं।“
“कोई बात नहीं पढ़ाई और मसखरी साथ-साथ चलेगी।“, रितेश बोला।
“और सुन हम सबसे तो तेरी मुलाकात हो गई। यार काली माई से ज़रूर मिल ले। उसकी नाखुशी ठीक नहीं। छोकरियों की नेता है।“
“अबे हट उससे कैसे मिला जाएगा?”
“मैं मिलवाऊँगा न।“ कहते-कहते वह रितेश के साथ जाकर उसकी डेस्क के सामने खड़ा हो गया। “श्यामली नया मुर्गा आया है। पढ़ाई से दुःखी है। टीचरों की मोहब्बत का मारा है। करियर ख़राब कर रहा है। अबतक इसने छक्के मारे हैं। वैसे होशियार और सीधा है। इससे कोई गलती हो जाए तो अनजानें में हुई गलती समझ कर माफ़ कर देना। मन में मैल नहीं है। पहलवान सोप से रोज़ दिल धोता है।“
“यू आर वेलकम रितेश। हम सभी भाई-बहन की तरह यहाँ पढ़ते है।“, श्यामली ने दो टूक उत्तर दिया था।
स्कूल का एक दिन ख़त्म हो गया था। यह पहला दिन ही रितेश के जीवन में बदलाव के संकेत दे गया था। उसे यहाँ का बेबाक वातावरण और छात्रों का व्यवहार बहुत भा गया था। इसके अतिरिक्त तीन मासूम से चेहरे जो पूरा दिन उसको कनखियों से देखते रहे उसके दिल और दिमाग पर छा गए। वह उनके नाम नहीं पूछ पाया। हाँ क्लास में उसका मन इतना रम गया था कि छुट्टी का समय उसकी परेशानी का सबब हो गया।

घर आया तो माँ ने पूछा, ”स्कूल में क्या रहा?”
“माँ मज़ा आ गया।“
“मन लगा?”
“माँ मन तो इतना लगा कि क्लासेज चलती ही रहे। छुट्टी न हो। किताबों की लिस्ट मिल गयी है। अभी जाकर ले आऊँगा ताकि कल से पढ़ाई शुरू कर सकूं।“
“मैं जानती हूँ बेटा तू होशियार है। ज़रूर पढ़ लिखकर परिवार का नाम रोशन करेगा।“
“माँ यहाँ और अपने उस अंग्रेजी स्कूल में ज़मीन आसमान का अंतर है। इस स्कूल में आकर लगा कि जैसे मैं अपनों के बीच आ गया हूँ। यहाँ किसी प्रकार की कोई बनावट नहीं है। बच्चे दिल के साफ़ हैं। टीचर भी प्यार से बोलते हैं। उनके प्यार में दिखावा नहीं है। उनका व्यवहार सौम्य है।“
“अच्छा।“
“हाँ माँ सच कहता हूँ। अगर लार्ड हडसन कान्वेंट में मैथ्स का टीचर एंजल श्रॉफ और संस्कृत का टीचर जीवन सिंह नहीं होता तो कोई वजह नहीं थी कि मैं पास न होता। दोनों सालों ने मुझसे कहा दिया था कि तुम कभी पास नहीं हो सकोगे। मेरा मन वहां से उचट गया था। मैं वहाँ नहीं पढ़ना चाहता था। लेकिन मैं जानता था कि पिताजी को यह कभी स्वीकार नहीं होगा कि मैं अंग्रेजी स्कूल के खिलाफ कुछ बोलूं। उन्हें जिन एटीकेट्स की आवश्यकता थी, वह वहीँ पैदा हो सकते थे। इन स्कूलों में नहीं। और मुझे वह एटिकेट्स घुटन का एहसास कराते थे। मेरे साथ और भी कई बच्चे थे जिनका ‘स्वयं’ वहाँ मर गया था। वह ‘पर-स्वयं’ में जी रहे थे।“
“चलो बेटा जो होता है वह भले के लिए होता है। अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है। तुम्हारी उम्र ही क्या है। सब ठीक हो जाएगा। जाओ मुँह हाथ धो आओ। नाश्ता कर लो।“
“नहीं माँ पहले मैं किताबें ले आऊँ। विजय को बुलाया है। आ रहा होगा। बाद में हम दोनों आराम से नाश्ता कर लेंगे।
रितेश शाम को विजय के साथ किताब कॉपी लेने बाज़ार गया। किताब-कॉपियों के लिए कवरिंग पेपर भी लाया। नाश्ता करने के बाद दोनों ने साथ बैठकर किताब कॉपियों पर कवर चढ़ाए और एक साथ बैठकर दो घंटे से अधिक पढ़ाई भी की।
रात के दस बजे माँ ने रितेश से कहा “बहुत देर हो गयी है। पढ़ाई बंद करो। विजय को घर जाने दो। वरना उसके घर में चिंता होगी।“

इसके बाद विजय और रितेश की मित्रता गहरी होती चली गयी। यदा कदा दद्दू भी उन दोनों के साथ पढ़ने लगा।

एक महीने बाद अंग्रेजी और मैथ्स के टीचर ने टेस्ट लिए, रितेश को पहली बार मैथ्स में पचास में से अठारह नंबर मिले। अंग्रेजी विषय में उसको सबसे अधिक पैंतीस नंबर मिले।
क्लास टीचर ने रिजल्ट बताते समय कहा, “मुझे फक्र है कि इस क्लास में मैथ्स, संस्कृत और अंग्रेजी के मेधावी छात्र हैं। कोई बता सकता है यह कौन है?”
“विजया इन मैथ्स”, किसी ने कहा।
“ओ के।“
“मीरा इन संस्कृत।“ ,दूसरे ने कहा।
“वैरी वेल एंड इन इंग्लिश?”
सभी चुप थे। कुछ देर बाद चुप्पी तोड़ते हुए राठौर साहब ने कहा, “रितेश इन इंग्लिश।“
सभी लड़के-लड़कियों की निगाहें इन तीनों पर जाकर टिक गयी। तभी राठौर सर ने कहा, “मैं चाहूंगा कि अलग-अलग तीनों विषयों के महारथी अपना ज्ञान एक दूसरे को बांटते रहे तो क्लास का बहुत भला होगा। क्यों विजया?”
“जी सर।“
“तो ऐसा करो तुम मैथ्स में कमजोर रितेश की हेल्प करो और रितेश तुम्हें अंग्रेजी में नोट्स बनाने में मदद करेगा। मीरा के सभी विषय अच्छे हैं वह सभी को हेल्प करेगी। ठीक है मीरा?”
“सर।“
इसके बाद राठौर सर ने पढ़ाना शुरू किया। रितेश उनके एक-एक शब्द को बड़े ध्यान से सुन रहा था। कॉपी में नोट भी कर रहा था। उसके पड़ोस में बैठे विजय ने कहा, “बड़ा स्टूडियस हो गया?”
“हूँ।“
“अबे इतना ज्यादा गंभीर हो जाएगा तो पास होना कठिन हो जाएगा।“
“हूँ”, मुस्कुराते हुए रितेश ने कहा।
कोई ठीक जवाब न मिलने से विजय चुप हो गया। राठौर सर के लेक्चर के प्रति गंभीर हो गया। पीरियड ख़त्म होने के बाद रितेश ने विजय से कहा,”बॉस पढ़ते समय मसखरी न किया कर।“
“साला इतना सीरियस हो गया।“
“हाँ तुझे नहीं मालूम राठौर सर के वाक्यों ने मेरे जीवन को पूरी तरह से बदल दिया है। मुझे लगने लगा है कि मैं पढ़ सकता हूँ और पास हो सकता हूँ।“
“अरे ऐसी कौन सी घुट्टी दे दी राठौर ने?”
“देख उन्होंने मेरे अच्छे नम्बरों की प्रशंसा की लेकिन जिन विषयों में मेरे नंबर ख़राब थे उनकी बुराई नहीं की। यह भी नहीं कहा कि मैं पढ़ नहीं सकता। मैं आज तक पिताजी से और कान्वेंट स्कूल के अपने टीचर्स से यही सुनता आया हूँ कि मैं नाकाबिल हूँ। पढ़ नहीं सकता। जीवन भर घास छीलूंगा।“
“तो अब तू क्या करेगा?”
“अब देखना। अभी से क्या कहूँ? बस इतना कहूंगा कि अब किसी भी विषय में फेल का मुंह नहीं देखूंगा।“
“तो हमारी दोस्ती कैसे चलेगी?”
“क्यों पढ़ाई और दोस्ती से क्या मतलब?”
“मतलब यह कि पास होने के लिए तू जब दिन रात एक कर देगा तो हमलोग घूमेंगे कब?”
“तू ठीक कहता है। लेकिन अपना एक टाइम टेबल होगा। समय सारिणी होगी। उसके अनुसार पढ़ेंगे भी और मौज भी करेंगे। समझा?”
“कुछ कुछ समझा। बना तू समय-सारिणी और दिखा उसके अनुसार चल कर।“
“कल ही ले समय-सारिणी।“

क्रमशः ……..

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