बीत चुके जब तीन पहर तब मैंने भी एक सपना देखा ।
विशद भविष्य की उज्जवलता को मैले आँचल में लपटे देखा ।
चपल चारु की चंचलता ने ऐसा खेल रचाया था;
जीवंत मन के प्रियतम को मुझसे दूर कराया था…
चुन चुन जिनको खूब सजाया मन के वो मनके टूट गए;
उजड़ गयी जीवन बगिया,काले अम्बर भी रूठ गए ।
उम्मीदों के रंगीले पंखो को घायल होते देखा था;
जब सपने में,उन सपनो को बेरंगी होते देखा था ।
अश्रुधार की शीतलता ने मन को जब जब छू लिया;
चेतना भी जाग गयी और मनको को मैंने ढूँढ लिया ।
सपना था वो मरू ज्वाला सा, कहा मलय की बात थी;
तुमुल कौतुहल शांत हुआ जब रवि किरण बरसात हुई ।।
———प्राची द्विवेदी————