एक आस….

886

एक नदी का उद्गम होता है
पहाड़ों से भी ऊपर हिमखंड से
वहीं से आरंभ होता है उसका सफ़र
पहाड़ों की गोद मे खेलती कूदती
वो नदी बढ़ चलती है आगे
अपनी ज़िंदगी जीने को,
इठलाती, बलखाती, शर्माती
पहाड़ों की गोद से वो खेलती कूदती
उतरती है, और रखती है अपना पहला कदम
इस ज़मीन पर।
कितनी आशाएं, उमंगे, भावनाएं
दिल में उठती है उसके,
पर जैसे ही बढ़ती है आगे
नगर नगर ,गांव गांव को छूती
सिमटती ही चली जाती है ख़ुद में, शांत सी, कुछ गुमसुम सी।
उसके इस सफर में
कई तो पूजते हैं उसे, एक देवी की ही तरह
पर ना जाने कितने ही,
अपनी अपनी तरह से
मैला कर देते हैं उसे,
अपमान, लांछन, कटाक्षों को सहती
सुबकती, सिसकती,चोटिल बढ़ती ही जाती है
सभी को देती हुई कुछ न कुछ
कहीं न कहीं
और जब मिल जाती है सागर में,
खत्म हो जाता है उसका अस्तित्व
उसका अपना अस्तित्व।
बहुत दूर, पहाड़ो पे, वो हिमखंड
जहाँ जन्मी थी वो,
बस देखता ही रहता है एकटक…
याद करते हुए अपना बचपन, अपनी गोद, आंखों से उसकी
ढल जाते हैं दो बूंद आँसू
और मिल जाते है सागर में
कहीं खो से जाते हैं वो दो बूंद, खारे से,
और फिर झटक के अपना सर,
फिर से, खुद को समेटती हुई वो
चल पड़ती है सागर के साथ
बाहों में बाहें डाले
एक नई दुनिया में
एक आस लिए मन में
काश! अब तो खुशियां हों जीवन में
काश! ……..

 

~अनीता राय~

Ast. Teacher

UP BASIC EDUCATION DEPARTMENT

KANPUR 

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here