दुर्भाग्य

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दुर्भाग्य की स्थिति वैचित्र्यपूर्ण है। वह कभी अकेला नहीं आता। जब आता है तो भाग के मारे हुए व्यक्ति की संपूर्ण बुद्धि विपरीत हो जाती है। एक राजस्थानी लोकोक्ति है-

मोत मुकदमा माँदगी अर मंदा रुजगार।
चारो मम्मा तब मिले जब रूठे करतार।।

मौत, मुकदमा, माँदगी (रोग) और मंद रोजगार यह चारों ‘म’ तब मिलते हैं जब भगवान रूठ जाता है। जब यह स्थिति पैदा होती है कि भाग्य प्रतिकूल हो जाए तो व्यक्ति का बना काम भी बिगड़ जाता है। दुर्भाग्यशाली व्यक्ति जहां भी जाता है वहीं उसे विपत्तियां आ गिरती हैं। उसके मनोरथ सिद्ध नहीं होते। उसकी बुद्धि भी नष्ट हो जाती है। वह शत्रु और मित्र में भेद नहीं कर पाता। वह शत्रु को मित्र समझने लगता है। मित्र से द्वेष करने लगता है। उसे मारता है। शुभ को अशुभ और पाप को कल्याणकारी समझने लगता है।

अमित्रं कुरुते मित्रं, मित्रं द्वेष्टि हिनास्ति च
शुभं वेत्यशुभें पापं भद्रं दैवहतो नर: ।।

वह गालिब की तरह है यही सोचने लगता है कि उसके दुर्भाग्य जैसा किसी के भाग में कभी नहीं रहा। उसके मार्ग में जैसी बाधाएं हैं वैसी किसी के मार्ग में नहीं आईं।

नाम के मेरे हैं जो दुख की किसी को ना मिला।
काम में मेरे हैं वह फ़ित्ना कि बरपा ना हुआ।।

उसे यह भी गीला होता है कि-किससे मेहरूमिए-किस्मत (दुर्भाग्य) की शिकायत कीजे हमने चाहा था मर जाएं, सो वह भी ना हुआ। दुर्भाग्य से घिरे व्यक्ति का निराशात्मक सोच होना आश्चर्य की बात नहीं। आश्चर्य की बात तो तब होगी जब दुर्भाग्य शील व्यक्ति सुनहरे प्रातः की आशा ही छोड़ दे। उसे तो सोचना चाहिए कि जब हलाहल ऊपर आ चुका है तो अमृत भी आएगा।

दुर्भाग्य की एकमात्र औषधि तो आशा ही है। आशा के सहारे तो ब्रह्मांड है। यह पृथ्वी है। यह संसार है। दुर्भाग्य से घिरा व्यक्ति अपनी कर्मठता से विरत ना हो। उसकी कर्म निष्ठा उसे कभी निराश नहीं होने देगी। उसमें निरंतर आशा का संचार करती है। एक ना एक दिन वह अपने दुर्भाग्य के पिंड से बाहर आएगा। सफलता के पायदानों में को प्राप्त करेगा। कवि शैले ने गलत नहीं कहा है- “इफ विंटर कम्स, कैन स्प्रिंग बी फॉर बिहाइंड।” यदि शीत ऋतु आ गई है तो क्या बसंत ऋतु अधिक दूर रह सकती है? जवाब है कदापि नहीं। फिर दुर्भाग्य से इतना निराश होने की क्या आवश्यकता की मन ग़ालिब की यह पंक्तियां दोहराने लगे- कहते हैं जीते हैं उम्मीद पर लोग हमको जीने की भी उम्मीद नहीं। हमें तो शराब की भाषा बोलनी चाहिए-

कदम-कदम पर ऐ हम सफीरो (सहयात्रियों)
है अहतमामे सितम तो क्या गम अंधेरे होते हैं और गहरे
नमूने रंगे सहर (प्रभात का उजाला) से पहले।

दुर्भाग्य के बादल ओट में खिसकेंगे। नहीं सुबह आएगी। चेहरे मुस्कुराएंगे। पतझड़ से पीड़ित तरु पत्तों से फिर लद जाएंगे यही विश्वास जरूरी है।

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