इच्छा

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“इच्छा हु आगाससमा अड़तिया।” इच्छाएँ आकाश के समान अनंत हैं। मनुष्य इच्छाओं में घिरा रहता है। उसके पास इच्छाओं के अतिरिक्त कुछ भी नहीं। यह जानते हुए की इच्छा विषयों का उपयोग करने से इच्छाएं कभी शांत नहीं हो सकती अपितु घी की आहुति डालने से अधिक प्रज्ज्वलित होने वाली आग की भांति वह और भी बढ़ जाती है, फिर भी मनुष्य इच्छाओं को नहीं छोड़ पाता। उसके समस्त कार्य इच्छाओं के दास होते हैं। वह जो कुछ करता है सब इच्छा के कारण करता है। इच्छा के बिना किसी मनुष्य का कोई काम कभी दिखाई नहीं नहीं देता।

इच्छा की गति अविराम है। मनुष्य की प्रवृत्ति भी अनोखी है। उसे जो मिलता है, उससे वह संतुष्ट नहीं होता। वह जिसकी इच्छा करता है, उसके मिल जाने पर उसका अनादर करता है। इच्छाओं की कोई थाह नहीं होती। मजहर

‘जानजानानानं की ख्वाहिश की उड़ान तो बहुत ऊँची है।
यह हसरत रह गई, क्या-क्या मजों से जिंदगी करते।
अगर होता चमन अपना, गुल अपना, बागबाँ अपना।

किंतु मीर अनीस को उन सरीके व्यक्तियों की इच्छाओं पर तरस आता है। साथ जाता नहीं कुछ जुज अमले नेक अनिसी इस पै इंसान को है, ख्वाहिशें दुनिया क्या क्या?

यह सच है कि अंत समय इंसान के साथ कुछ नहीं जाता। जाते हैं तो उसके कुछ नेक काम। फिर भी इंसान को दुनिया भर के अंतिम ख्वाहिशें बनी रहती हैं। वह उनके पीछे पागल रहता है। कामनाओं, इच्छाओं और हसरतों के इस सैलाब से दुखी होकर बहादुर शाह ‘जफर’ इनसे किनारा करने की सोच बैठते हैं।

कह दो इन हसरतों से कहीं और जा बसे।
इतनी जगह कहाँ है दिले दागदार में।।

शेख सदी तो जफर से भी एक कदम आगे हैं। वह नहीं चाहते कि किसी इच्छा के लिए मन का द्वार खोला जाए और यदि मन का द्वार किसी कारणवश खुल ही जाए तो उसे कठोरता से बंद भी नहीं करना चाहिए|

ब रुए खुद हरे इतमाअ बाज नतबा कर्द।
चु बाज शुद ब दुरुस्ती फराज न तवाँ कर्द।।

मस्तराम महात्मा इच्छा रहित व्यक्ति को संसार का सरताज मानते हैं।
विद्वान इच्छा से सदा भयभीत रहते हैं। उनके लिए इच्छा कष्टों की जनक है। इच्छा से पाप होता है। इच्छा से ही दुख होता है। इच्छा को दूर करने से पाप दूर हो जाता है। और पाप दूर होने से दुख दूर हो जाता है।
विद्वान इच्छा और ऑंसू को जुड़वा बहनें मानते हैं। ऑंसू चाहे खुशी के हों अथवा दुख के, इच्छा जनित होते हैं। इच्छा पूरी हो गई तो आँखें खुशी से छलक उठती हैं। इच्छा पूरी नहीं हुई तो आँखें दुख भाव से भर आती हैं।
लेकिन यह भी सत्य है की इच्छाएं ना रहे तो संसार का अस्तित्व ही ना रहे। इच्छाओं से पार पाना भी दुष्कर कार्य है। यह अमरत्व को प्राप्त कर चुकी हैं। ‘दाग’ साहब इच्छाओं से इस मर्म को समझ चुके हैं।

दमे मर्ग (मृत्यु क्षण) तक रहेगी ख्वाहिशें (इच्छाएँ)
यह नीयत कोई आज मर जायगी?

इसलिए इच्छाओं का अनादर करना या उन्हें त्यागना ठीक नहीं। यह इच्छाएं ही तो हैं जो दिन के और संसार के वीराने में दम भर चाँदनी बिखेर जाती है। लेकिन उन पर नियंत्रण जरूरी है।

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