जूते बदलने के किस्से काफी रसात्मक हैं। विष्णु लक्ष्मी के साथ शिव जी के यहाँ मेहमान थे। पार्वती जी को श्रृंगार का शौक था। लक्ष्मी को वन विचरण का। एक दिन संयोग ऐसा हुआ कि लक्ष्मी जल्दी में पार्वती की पादुकाएँ पहन कर घूमने चली गईं- धरती डोलने लगी। पार्वती स्नानागार से भयभीत होकर बहार भागीं। जल्दी में उन्होंने लक्ष्मी के चप्पल पहन लिए। पहनते ही आकाश की ज्योतियाँ बुझ गयी। विष्णु और शिव घबराये। शिव पार्वती के साथ कैलाश पर चढ़ गये। विष्णु लक्ष्मी को लेकर क्षीरसागर में जा छिपे। हड़बड़ी ऐसी रही कि न पार्वती को अपने खड़ाऊ का ध्यान रहा और न लक्ष्मी को अपनी पादुकाओं का। खैर, इस पादुका परिवर्तन से उन दोनों को तो कोई कष्ट नही हुआ, किन्तु दुनिया हमेशा के लिए लक्ष्मी पर पार्वती के सामीप्य से वंचित हो गई। न शिव फिर कभी कैलाश से नीचे उतरे न विष्णु क्षीरसागर से धरती पर वपास आये। श्रीलंका के प्राचीन कवि श्रीरत्न ने इस पर लिखा है-
दोष नारायण का नहीं था,
और, न नारायणी का भी,
दोष महादेव का नहीं था
और न महादेवी का भी।
छल पादुकाओं का था
की चरण फिर भू पर
न श्री के पड़े
और न शक्ति के।
अकबर के प्रसंग में एक कहानी है। एक दिन बैरम खाँ ने देखा की नवयुवक अपने जूते नहीं पहने हुए है। वह अपने दादा बाबर के जूते पहने हुए है। बैरम खाँ ने अकबर का ध्यान उधर आकृष्ट किया। अकबर को अपनी भूल का पता चला। संयोग यह हुआ था कि अपनी आया से उसने जूते मांगे थे और उसने वात्सल्य के अतिरेक में बाबर का मखमली जोड़ा उसे पहना दिया। अकबर शिकार पर जाने की जल्दी में था। उसने धाय के इस छल पर गौर नहीं किया था। किंतु बैरम खाँ ने इस घटना को भविष्य-दर्शन के रूप में देखा और वह सूफी कवि शेख इराकी के इस शेर को गुनगुनाने लगा-
रुख़े तू दरखोरे चश्मे मन
अस्त लेक चे सूद,
कि पर्दा अज रूखे तू बर
नमी तावां अंदाख्त
इसमें शक नहीं कि तेरा चेहरा इस काबिल तो है कि मेरी आँखें उसे देखें, लेकिन उसका लाभ ही क्या जब कि तेरे चेहरे से पर्दा ही न उठाया जा सकता हो?
अकबर को बैरम खाँ का यह व्यंग्यबाण चुभ गया। उसने अपने गुरु अर्थात बैरम खाँ से कहा कि मैंने अपने दादा जी के जूते ही नहीं पहने हैं, मैं उनके सौर्य और पराक्रम को भी को भी अपनी जिंदगी में प्रतिबिम्बित करके आपको दिखलाऊँगा। मेरे चेहरे से पर्दा उठेगा और इतिहास गवाही देगा कि अकबर ने भूल से जूते नहीं पहने हैं, भाग्य ने उसे कीर्ति के रथ पर बिठा दिया।
स्वर्गीय श्री निवास शास्त्री का एक संस्मरण है। वे कहते हैं कि तमिल के कवि कम्बन को स्वप्न में वाल्मीकि की पादुकाएँ प्राप्त हुई थीं। ऐसी कथा विद्वानों में प्रसिद्ध है। बालक कम्बन ने उन्हें पहना और उन्हें रामकथा कहने की स्फूर्ति प्राप्त हुई। कम्बन का रामायण महाकाव्य सर्वत्र प्रख्यात है। इस पर एक लोककवि की ये पंक्तियां भी हैं-
देवता से श्रेष्ठ उसका
मुख है- वह आनंद
देता है।
मुख से श्रेष्ठ उसके
हाथ हैं- जो वरदान
देते हैं।
हाथ से श्रेष्ठ उसके
चरण हैं- जो स्वर्ग
देते हैं।
किन्तु सबसे श्रेष्ठ उसकी
पादुकाएँ हैं-जो स्वयं
देवता को ही हमें दे देती हैं।
‘रामचरित मानस’ के भरत इसके जीवंत साक्ष्य हैं। तुलसीदास उनकी महिमा का स्मरण यों करते हैं-
नित पूजन प्रभु पांवरी
प्रीति न हृदय समाति
मांगी मांगी आयसु करत
राजकाज बहु भाँति।