धर्म परायणता

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अव्यावहारिक धर्मपरायणता धर्मनिष्ठता को बड़ी चुनौती है और यह धर्मांधता का कारक भी बन जाती है। धर्म परायणता का अर्थ है धर्म में निष्ठा। धर्म परायण वह है जो धर्म में निष्ठा रखता है।

धर्म क्या है? एक प्रकार का अदृष्ट जिससे स्वर्ग की प्राप्ति होती है। लौकिक, सामाजिक कर्तव्य। वह कर्म, जिसे वर्ण, अक्षम एवं जाति आदि की दृष्टि से करना आवश्यक है यह पाँच होते हैं- वर्ण धर्म, आश्रम धर्म, वर्णाश्रम धर्म, गौण धर्म तथा नैमित्तिक धर्म। मनु ने धर्म के दस लक्षण बताए हैं- धृति, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, इंद्रिय, निग्रह, विधा सत्य और अक्रोध। धार्मिक या पुण्य कार्य करना और धर्म के अनुसार चलना धर्माचरण कहलाता है। धर्माचरण व्यक्ति धर्मवान धर्मात्मा ओर धर्मनिष्ठ कहलाते हैं। उनसे अपेक्षा होती है कि वह मनु द्वारा बताए धर्म के सभी गुणों का पालन नित्यप्रति के जीवन में करेंगे। धर्म की महिमा को बढ़ाएंगे। स्वयं के लिए द्वार को सरल बनाएंगे।

किंतु सामान्यता धर्मपरायणता के नाम पर लोग ऐसी विडंबनाओं में फंस जाते हैं जिनका संबंध पार लौकिक विमल यादव से नहीं रह जाता। घर हो या देवालय दोनों स्थानों से पूजा, अर्चना, याचना और ध्यान लगाकर निकलने पर लोग धर्म के मूल को भूल जाते हैं। देवालियों के बाहर बैठी याचकों की भीड़ को चढ़ाए गए प्रसाद के कुछ भाग देकर भक्त धर्मपरायणता की इतिश्री मान लेते हैं। उससे दूर उनकी दृष्टि उन मौन याचकों पर नहीं पड़ती जिनके लिए एक-एक रुपए दान भी नए जीवन का संदेश बन सकता है।

कुछ अपवादों को छोड़कर कितने ऐसे धर्मपरायण व्यक्ति होंगे जो किसी जरूरतमंद के जीवन में सेंटाक्लास बनकर आते होंगे। घातक व जानलेवा रोगों में जकड़े कितने ही मासूम बच्चे, वृद्ध, महिलाएं और पुरुष समाज में निस्सहाय पड़े जीवन की अकाल अंतिम सांसो की प्रतीक्षा में शुष्क आंखों से अवकाश को निहारते हैं। लेकिन कोई इन्सानी फरिश्ता उनकी पीड़ा से द्रवित नहीं होता।जीवन आशा का निस्सीम आकाश उनके लिए सिकुड़ता जाता है। वह खामोश किसी दिन शून्य में खो जाते हैं। उनके इर्द-गिर्द धर्मपरायण व्यक्तियों का लगने वाला मेला छँट जाता है। धर्मपरायणता की डगर देवालयों तक आबाद रहती है। अगर कुछ आबाद नहीं रहता तो धर्म के पांच या दस गुण। यह गुण अव्यावहारिक धर्म परायणता को होम हो जाते हैं। स्व-संतुष्टि की सेवा में खो जाते हैं। धर्म का अर्थ बदल जाता है। उसमें परहित का भाव समाप्त हो जाता है। स्वहित का भाव अंगड़ाई लेने लगता है। अपनी धर्मपरायणता की दुहाई देने लगता है। धर्मनिष्ठा बेमायने हो जाती है।

एक बेमानी बन कर रह जाती है। धर्म परायणता मात्र पूजा ध्यान कीर्तन तक सीमित नहीं है। उसका दायरा इससे कहीं विस्तृत है। धर्म परायण शेषनाग होते हैं । उनके नाम उनके कंधों पर पीड़ित मानवता का संपूर्ण दायित्व होता है, वह यदि अपने इस दायित्व से पीछे हट जाएंगे तो धर्म परायणता की स्थापित परिभाषा स्वतः परिवर्तित हो जाएगी। धर्म परायणता की धारणा भी विलुप्त प्राय हो जाएगी। धर्म परायणता जीवित रहे इसी में संपूर्ण भवन या विश्व का कल्याण हो।

धर्म परायणता अपनी अव्यावहारिक भावना से निकलकर व्यावहारिकता के सुंदर उपवन में पल्लवित हो तभी धर्म की परिकल्पना साकार होगी। वह अमूर्त होकर भी मूर्त हो सकेगा उससे उत्पन्न ऊर्जा, आनंद और प्रकाश का लाभ सभी को एक समान रूप से मिल सकेगा।

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