*** प्रेम और मोह ***

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प्रेम और मोह एक सिक्के के दो पहलू हैं। प्रेम जीवन की सामान्य आवश्यकता है, जीवन की एक शर्त है। मोह जीवन की विवशता है। मनोवैज्ञानिक विवशता है। एक आवश्यक बुराई है। प्रेम असीमित, उदात्त और अमाप्य है, मोह नहीं।
मोह सकुंचन का शिकार रहता है। मोह में फंसा कोई व्यक्ति एक सीमित दायरे में सिमटकर रह जाता है। उसकी रूचि का दायरा बढ़ नहीं सकता। विस्तार नहीं पाता। वह समाज को कुछ नहीं दे पाता है।
इसके विपरीत प्रेम के प्रसार में बौद्धिक, आत्मिक और अस्तित्व के विकास का क्रम अबाध गति से बढ़ता है। वह सम्पूर्ण समाज को अपने में समाहित कर सकता है। उसके दायरे में भेदभाव नहीं होता। अपना होने की सीमित भावना नहीं होती। वह स्व से लेकर पर जनों तक को अपने में समाहित कर लेता है। उसकी प्रेरणा का फल होता है कि व्यक्ति दूसरों के सुख दुख में काम आता रहे। उनके हित संवर्धन के लिए वह अपना सर्वस्व अर्पण करने को तत्पर रहता है।
प्रेम का यह गुण शक्तिपरक न होकर विश्वासपरक भी होता है। उसमें व्यक्तिविशेष नहीं सम्पूर्ण विश्व के कल्याण की भावना बलवती होती है। प्रेम सृष्टि की छोटी से छोटी रचना से लेकर विराट सृष्टा के सामीप्य का माध्यम होता है।
मोह इस गुण से विरत रहता है। उसकी सीमा और लक्ष्य व्यक्तिगत संतुष्टि तक निहित रहती है। व्यक्ति केवल उससे मोह करता है जो मनोवैज्ञानिक दृष्टि से उसे सुख की अनुभूति देता है अथवा उसके भौतिक जीवन में सुख की अभिवृद्धि करता है।
जहाँ प्रेम एक भावनागत विनय है वहाँ मोह एक निरंकुश अधिकार है। प्रेम बंधन मुक्त रहता है। मोह बंधनों के संजाल से घिरा रहता है। प्रेम में तर्क नहीं होता, मोह तर्क पर आधारित है। प्रेम स्थूल नहीं होता, मोह स्थूल होता है। जहाँ प्रेम में आत्म समर्पण है, वहीँ मोह में पर समर्पण का भाव बलशाली है। प्रेम का रास्ता अत्यंत सरल और सहज है। ‘अति सूधो सनेह को मारग है जहाँ नेकु सयानपन बांक नहीं।’ प्रेम करो मोह से निकलो। प्रेम ही जीवन परमात्मा को पाने का मार्ग है। प्रेम से जगत को अपने अधीन किया जा सकता है। प्रेम से दूरियाँ मिटती हैं। आत्मीयता बढ़ती है। जीवन की सार्थकता प्रेम में ही निहित है।

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