जिन्दादिली

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अकबर साहब जिंदगी भर प्रसन्न रहे और लाखों के मनहूस चेहरों पर उन्होंने मुस्कानों के फूल खिलाए। वह कह भी गये हैं- “जिंदगी जिन्दादिली का नाम है ‘अकबर’, मुर्दादिल क्या खाक जिया करते हैं?”
सच,कभी सोचें यदि जिंदगी में हंसोड़ और विनोद पक्ष का अभाव हो जाए तो क्या जिंदगी खुद-ब-खुद क़यामत नहीं बन जायेगी। गम्भीरतम परिस्थितियों में भी विनोद को ढूंढ़ लाना वीरतापूर्ण कार्य है।

फ्रेंच लेखक बालजाक की जिंदगी बड़ी गरीबी में बीती थी। किन्तु विनोद की जैसी मात्र उनके उपन्यासों में है वैसी गिनती के ही उपन्यासों में मिलेगी। इक दिन बालजाक को जब उधार रोटी पाने में भी परेशानी हो गई तो वह एक जमींदार के भोज में चले गये जहाँ मंत्रियों और सामंतों के सिवाय और कोई नहीं था। उनके फटे-पुराने कपड़ो को देखकर सबने नाक-भौं सिकोड़ी। मेजबान ने पूछा की आप कैसे आ गए, कौन हैं, मैंने आपको नहीं बुलाया था? बालजाक ने जवाब दिया- ‘आप बुलाते तो मैं कभी नहीं आता, मगर आज तबियत यह हो गई की चलो देखें, ईसा मसीह ने कहाँ तक ठीक कहा था कि ईश्वर ने मनुष्य को अपनी मूरत में बनाया है।’ चारों तरफ स्तब्धता दौड़ गई। थोड़ी देर बाद बालजाक फिर बोले- ‘महानुभावों, डरिये मत। जाम भरिये, ख़ुशी से पीजिये। मैं तो ईसा की तरह मज़ाक कर रहा था। ईश्वर बहुरूपिया है और हम सब विदूषक हैं।’

महफ़िल में मुस्कानों का आदान-प्रदान होने लगा। मीठी कनखियों से मेहमान एक-दूसरे को देखने लगे। मेजबान ने कहा- ‘महोदय, आप चाहे जो हों, मगर आप भाग्यवान हैं कि यह खुशमिजाजी अपने पाई है।’ खुश रहना मुर्दों को जिलाने के बराबर नियामत है।’

एक-दूसरे फ्रेंच लेखक एलेक्जेंडर डयूमास कहते हैं कि प्रसन्नता का स्रोत सभ्यता की चट्टानों के नीचे दबा होता है, नहीं तो क्या वजह है कि देहात के लोग ज्यादा खुश रह सकते हैं और शहर के लोग ज्यादा दुःखी?
घर से भागकर प्रसन्नता प्राप्त करने का विधान हमारे अपभ्रंश साहित्य में मिलता है। ‘प्राकृत पिंगल में बड़े पते की बात कही है- राजा लुद्ध, समाज खल।

लाओत्ज़े ने प्रसन्नता को पाने का एक तरीका बतलाया है कि आँखे बंद कर लो और अपनी मूर्खताओं को एक-एक करके स्मृतिपट पर उतारो- फिर
एक-एक मूर्खता पर तीन-तीन बार ज़ोर से हँसो। तुम देखोगे की प्रसन्नता के बीसियों निर्झर तुम्हारे भीतर फूल निकले हैं।

बायरन कहते हैं कि रोना भी अपना और हंसना भी अपना। यह दौलत हमसे कौन छीन सकता है? मगर हमारी मूर्खता यह है कि हम आशा करते रहते हैं कि कोई आयेगा और हमारे आँसू पोंछेगा या हम सब डरते रहते हैं कि ऐसा न हो कि कोई आये और हमारी ख़ुशी में आग लगा जाये। यहाँ अपनी खेती हरेक को खुद ही काटनी पड़ती है।
उर्दू का एक शेर इसी बात को और भी मर्मस्पर्शी ढंग से प्रस्तुत करता है-
कौन रोता है किसी और के खातिर ए दोस्त,
सबको अपनी ही किसी बात पर रोना आया।

विक्टर ह्यूगो को मनहूसी के जब दौरे पड़ते थे तो वो जंगल में दूर एक तालाब के किनारे जा कर बैठ जाते थे- पास में कंकड़ों का एक ढेर इकट्ठा कर लेते थे। फिर एक-एक कंकड़ बड़े क्रोध के साथ तालाब में फेंकते थे। ढेर समाप्त होने पर वापस घर लौट आते थे।एक दिन एक लड़की ने ह्युगों से इस अद्भुत नाटक का रहस्य पूछ लिया। ह्यूगो पहले तो हिचकिचाये फिर बोले- इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है। मेरी माँ ने बचपन में मुझे सिखाया था कि जब तुम्हारे सिर पर मनहूसी का भूत सवार हो जाये तो तुरंत जाकर उसे तालाब में फेंक आया करो और वह तैर कर कहीं बाहर नहीं निकल आये इसलिए उसे कंकड़ मार मार कर डुबा दिया करो।

तिब्बत में तीन संत थे। वे जहाँ भी जाते सदा लोगों को इतना हँसते थे कि लोग हँसते-हँसते लोट-पोट हो जाया करते थे। वे लोगों की भीड़ में जाकर जोर-जोर से हँसने लगते थे। स्वभावतः आश्चर्य से लोग उन्हें हँसते देखकर हँसने लग जाते थे। इस बात का पता हँसने वालों को नहीं हो पाता था कि उन्होंने कब हँसना शुरू किया। जब हँसने वालों की एक बहुत बड़ी भीड़ इकट्ठी हो जाती थी तब संत चुपचाप हो जाते थे। जब लोगों की हँसी रूकती तो वे पूछते थे कि आप लोग क्यों हँस रहे थे। लोगों के पास इस बात का कोई उत्तर नहीं होता था। तब संत उन्हें बताते थे बिना किसी कारण के भी मनुष्य प्रसन्न रह सकता है क्योंकि प्रसन्नता व्यक्ति का आन्तरिक स्वाभाव है। इसलिए आप हँस रहे थे।
मार्क ट्वैन का आग्रह है कि कुछ भी करो, खुश रहो। तुम्हारे पास प्रसन्नता की नाव है और दुनिया के प्रपंचों की गठरी। अक्लमंदी यह है कि गठरी को ले कर नाव में बैठ जाओ और मारो पतवार। मूर्खता यह है की गठरी समेत नाव को सिर पर ढोते चलो।

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