अहं देवत्व की राह में सबसे बड़ी बाधा है, जब तक ‘मैं’ का भाव मन में रहता है व्यक्ति स्वयं से, दूसरों से और यहाँ तक कि ईश्वर से भी दूर रहता है। उसकी आंखों पर अहं का चश्मा उसे एक सीमित दायरे तक की वस्तुओं को देखने में सहायक होता है। वह इस दायरे से अधिक ना तो कुछ देख पाता है और ना ही कुछ समझ पाता है। अहं भाव व्यक्ति को नश्वरता और तुक्षता प्रदान करता है।
ता बा खुदम अज अदम कम कम ।
चूँ बा तो शुदम हमा जहानम।। तब तक मैं ‘अहं’ हूँ, तब तक मैं नश्वर हूँ और तुच्छ हूँ। परंतु जब मैं तू हो जाऊंगा तब सारा संसार हो जाऊंगा।
अहं भाव के मध्य ईश्वर भी प्राप्त नहीं होता। ईश्वर को प्राप्त करने के लिए अहम भाव का त्यागना आवश्यक है। बिना अहं भाव त्यागे जितने भी तीर्थ स्थल क्यों ना घूम लिया जायँ मन की कलुषता नहीं मिटती। ईश्वर से मिलन का रास्ता सहज नहीं होता।
मनुष्य जितनी देर अहं से जुड़ा रहता है उतनी देर दोष उसे घेरे रहते हैं। वह दोष युक्त रहता है। वह देवत्व की ओर अग्रसर नहीं होता है। जिस पर उसका अहं-बोध समाप्त हो जाता है वह देवत्व के समीप आ जाता है।
दादू दयाल के शब्दों में-
जहाँ राम तहँ मैं नहीं, मैं तहँ नाहीं राम।
दादू महल बारीक है, द्वै को नहीं ठाम।।
यह तो यह ‘मैं’ या ‘अहं’ नहीं का पर्दा सांसारिक जनों को भी व्यक्ति से दूर रखता है। व्यक्ति ना तो दूसरों को समझ पाता है ना उसके साथ हेल-मेल कर पाता है।
“आप ही आप यहाँ, तालीबो (चाहने वाला) मतलब (जिसको चाहा जाए) है कौन
मैं जो आशिक प्रेमी हूं कहा था मुझे मालूम ना था।
वजह मालूम पड़ी, तुझसे ना मिलने की सनम (प्रिय)
मैं ही खुद पर्दा बना था मुझे मालूम ना था।।
अहं भाव रखने वाले को ईश्वर प्राप्त नहीं होता। जिस दिन ईश्वर प्राप्त होता है उसी दिन अहं भाव मन में नहीं रहता। कहते हैं कि अहं को त्यागने से ही अहं का विस्तार होता है। ऐसा विस्तार जिसमें समस्त सृष्टि समाहित हो जाती है। अहं के चलते मन में हताशा का भाव उत्पन्न होता है। व्यक्ति तनाव युक्त रहता है। उसकी बुद्धि का क्रियाकलाप बाधित रहता है।