भूलना

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भूलना मानवीय प्रवृत्ति है या एक कला है। या फिर एक आवश्यकता। या फिर नई संस्कृति। विषय विवादित है। अक्सर लोग किसी विषम स्थिति के आते, अपने बचाव में अपनी भूलने की प्रवृत्ति को बलि का बकरा बनाकर, ससम्मान बच निकलते हैं। भले ही वह कुछ भी न भूले हों, लेकिन भूल जाने का बहाना करके वह अपने को निर्दोष साबित कर ले जाते हैं।

यह स्थिति सौ में से अट्ठानवे प्रतिशत व्यक्तियों की होती है। सामान्यतः व्यक्ति अपनी सामाजिक सहनशीलता और उदारता की स्थापना के लिए किसी भी व्यक्ति से कोई भी वायदा कर लेते हैं, भले ही वह उसे निभा पाने की स्थिति में हो या नहीं। वायदा जब पूरा नहीं हो पाता और दूसरा पक्ष सामने आकर खड़ा हो जाता है तो बचाव का एक ही मंत्र शेष मिलता है’ अरे हम भूल गए’। बात यहीं नहीं खत्म हो जाती। वह बड़ी सहजता से दूसरे पक्ष पर आरोप भी लगा देते हैं ‘जनाब आपने याद दिला दिया होता तो ऐसा न होता।’ शिकायतकर्ता मौन हो जाता है। व्यापार में इस तरह हर बात को विशेष तौर से धन अदायगी के मामलों में, लोग बड़ी सहजता से भूल जाने की ओट में, अपने सम्मान को बचा ले जाते हैं। पति-पत्नी और प्रेमी-प्रेयसी भी भूलने का सहारा लेकर कई स्थितियों में एक-दूसरों पर अपना विश्वास जमा लेते हैं। निश्चित रूप से ऐसी परिस्थितियों में भूलना एक उत्कृष्ट कला के रूप में उभरता है। इस कला में सभी दक्ष हों सम्भव नहीं। जो इस कला में दक्ष नहीं हैं, वह भूलने का जामा ओढ़ ही नहीं सकते। उनके शब्द उनकी कला को उघाड़ कर वास्तविकता को प्रकट कर देते हैं।

जो व्यक्ति भूलने के दोष को कला के रूप में स्वीकार नहीं करते वह मन्दबुद्धि या ज़ाहिल कहे जाते हैं, ऐसे व्यक्ति या तो बात को समझ नहीं पाते या फिर वह अपने सामाजिक दायित्वों के प्रति सजग नहीं होते हैं। वह कुछ ही दिनों में मुर्ख मंडली के सम्मानित सदस्य होने का गौरव प्राप्त कर लेते हैं। उनके कुछ परिजन तो उन्हें पागलों तक की श्रेणी में लाकर खड़ा कर देते हैं। ऐसे व्यक्ति वस्तुतः सहानुभूति के पात्र होते हैं।

वैसे भूलना चाहे किसी के स्वभाव में शामिल होकर उसके जीवन की सामान्य प्रक्रिया बन जाए या फिर किसी के जीवन की यह कला मान ली जाय- दोनों ही स्थितियों में यह दोष व्यक्ति को सामाजिकता के दायरे से अलग-थलग कर देता है। उसे एकांकी जीवन व्यतीत करने को बाध्य कर देता है। इसलिए इस दोष से जितना बचा जाए अच्छा है। याददास्त जितनी प्रखर होगी , सफलता भी उतनी स्थाई होगी।

कुछ स्थितियों में भूलना एक मजबूरी होती है। विवशता होती है।भूत की खट्टी-मीठी यादों में डूबा वर्तमान और भविष्य को पराजय तक सीमित कर उसके विकासक्रम को अवरुद्ध कर देता है। पुराने सदमों से उबरने के लिए भूलना जरूरी है। अतीत की यादें बहुत दूर तक पीछा करती हैं। बुद्घिमानी इसी में है कि बीता सबकुछ भुलाकर, वर्तमान में जीना सीख लिया जाए। इस प्रक्रिया में भूलने की प्रवृत्ति का संबल लेना ही श्रेयष्कर है।
इस स्थिति में भूलना, व्यक्ति के लिए न तो एक प्रक्रिया होती है और न कला। कुछ है तो बस आवश्यकता। समय की माँग।

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