भीड़ …

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भीड़ की विशेष प्रकृति है। अजूबे पर टूटती है। जितना बड़ा अजूबा, उतनी अधिक भीड़। अजूबा कभी व्यक्ति होता है। कभी उसके द्वारा निर्मित वैचित्रपूर्ण परिस्थितियाँ। यूँ भीड़ का आकर्षण अजूबा व्यक्ति अधिक होता है, वैचित्र्यपूर्ण परिस्थितियाँ कम। कुछ भी हो बिना इस भीड़ के हम जी नही सकते। भीड़ के अभाव में मर भी नहीं सकते। जन्म से मृत्यु तक भीड़, जन्म दिवस पर भीड़, विवाह पर भीड़, विवाह वर्षगाँठ पर भीड़, झगड़े में भीड़, शवयात्रा में भीड़।
भीड़ हमारे व्यक्तित्व के दर्पण के समान है। हमारे सामाजिक जीवन की सफलता का मापक है। पैमाना है। हमें भीड़ में रहना ही अच्छा लगता है। भीड़ लोगों की हो या विचारों की, भीड़ जरूरी है। जब हम व्यक्ति और व्यक्ति समूहों से दूर होते हैं तो हम विचारों की भीड़ में घिरे रहते हैं। विचारों की भीड़ हमारा पीछा नही छोड़ती। हम उससे पीछा छुड़ाना भी नहीं चाहते। विचारों की भीड़ से जुदा होकर जैसे हम निष्क्रिय हो जाएंगे, यह भय हमारे मन को उद्वेलित करता है। हम विचार शून्यता में मृत्यु के भय से विह्वल हो उठते हैं। भीड़ व्यक्तियों की हो या विचारों की, जीवन को गति देने के लिए उतनी ही आवश्यक है जितना कि साँसों के चलते रहने के लिए अन्न, हवा और पानी।
हम भीड़ संस्कृति के सफल वाहक हैं। हमारे चारों ओर भीड़ न हो तो जैसे हमारा कोई अस्तित्व नहीं। हमारा अस्तित्व भीड़ की विशालता से जुड़ा है। जितनी बड़ी भीड़, उतने बड़े हम। भीड़ भूख हमारी अतृप्त रहती है। इसे तृप्त करने की आकांक्षा में हम अक्सर जीवन के अनेक सुनहरे क्षणों को गँवा देते हैं। जीवन में संत्रास उत्पन्न कर लेते हैं। हम भीड़ जुटा पाने की महत्वाकांक्षा में क्या कुछ नहीं करते और जब यह हमारी अपेक्षा अनुरूप नहीं जुड़ती तो मन मसोस कर रह जाते हैं। वैसे सामान्य अवसरों पर जहाँ भीड़ बढ़ाने वाले व्यक्ति को सुखमय क्षणों को भोगने की सुविधा दिख पड़ती है, वह सहर्ष जुड़ने लगता है। इसके विपरीत अवसरों पर भीड़ जुटाना दुष्कर है। लोगों के जुटने में उनकी व्यस्तता आड़े आती है। उपस्थिति मात्र लगा पाने का समय ही मिल पाता है। फिर भीड़ मोह नहीं भंग होता। शायद ही कभी कोई ऐसा बिरला मिले जो भीड़ से भागे। अनचिन्हा अनजाना रहना चाहे। जैसा ग़ालिब चाहते हैं-

रहिये अब ऐसी जगह चलकर जहाँ कोई न हो
हम सुखान कोई न हो और हम जवाँ कोई न हो
बे दरो दीवार सा एक घर बनाना चाहिए।
कोई हम साया न हो और पासबाँ कोई न हो
पड़िये ग़र बीमार तो , कोई न हो तीमारदार।
और अगर मर जाईये तो नौहा ख्वां कोई न हो।

लेकिन यह चाह बिरले व्यक्तियों की हो सकती हो। बहुसंख्यक की नहीं!

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