राम नाम सत्य है। पवित्र है। स्मरण योग्य है। दुःख के निष्ठुर क्षणों में सहारा है। आशा है। ढांढस है। जीवन का सम्बल है। उसके बाद। उसके बाद कुछ नहीं। यह सत्य नहीं। सम्बल नहीं। मनुष्य सब कुछ है। उसका अहम सत्य है। सहारा है। वही सब कुछ है।
देखी हैं अर्थियाँ। बिलखते बच्चे। चिल्लाती विधवाएँ। और सुनी हैं कुछ आवाजें-राम नाम सत्य है, गोपाल नाम सत्य है, सत्य बोलो मुक्ति है और न जाने क्या-क्या।
चन्द देर यह आवाजें अमर शान्ति का सन्देश देती हैं। पापों को घृणास्पद बना देती हैं। वातावरण राममय हो जाता है। सभी कुछ पावन दिखाई देने लगता है।
श्मशान तक पहुँचते-पहुँचते यह सारी आवाजें खामोश हो जाती हैं। लोग अर्थी को पंचतत्वों के हवाले कर लौट लेते हैं।
वापसी के साथ गमजदों की भीड़ की राममय तन्मयता श्मशान में दफ़न हो जाती है। उनमें सोया शैतान मचलता है। अहंकार प्रतिध्वनित होता है। राम नाम सत्य नहीं रह जाता। इर्द-गिर्द की भीड़ में शामिल होते ही उन्हें अपना वजूद याद आ जाता है।
शोर मचता है-अपना हक हम लेकर रहेंगे, खून का बदला खून से लेंगे, इन्कलाब जिंदाबाद होता है।
बस इन्कलाब के खातिर खून बहता है। अर्थी की बारात उठती है। बच्चे फिर अनाथ होते हैं। सुहागिनें विधवा होती हैं और फिर वही चिरपरिचित आवाज कानों को बेधती है- राम नाम सत्य है। कुछ देर बाद फिर सब कुछ निःशेष और अर्थहीन हो जाता है। क्रम चलता रहता है। काल बढ़ता रहता है। सभ्यता, संस्कृतियाँ आती-जाती रहती हैं। परिवेश नही बदलता तो राम नाम सत्य का। क्योंकि वह सत्य और असत्य दोनों है। सुन्दर और असुन्दर दोनों है। उसे देखने, समझने और उनका उच्चारण करने वाले की भावना का उससे सरोकार है। वरना वह कुछ भी नहीं। आठ-नौ अक्षरों का शब्द मात्र है बस।