नगरीय जीवन

1994

महानगरीय जीवन में दो ऋतुओं का प्रभाव अधिक पड़ता है।एक तब, जब ग्रीष्म ऋतु का मलमली थान लिपटता है और उसके ऊपर शरद ऋतु का ऊनी थान खुलता है। दूसरा तब जब शरद ऋतु का ऊनी थान सिमटता है और ग्रीष्म ऋतु का मलमली थान तेज़ी से फैलता है।
ऊनी थान से लिपटा नगर कहीं दूर किसी पुलिस स्टेशन या घंटाघर में पांच या छः घंटों की आवाज़ सुनकर करवट लेता है। बस स्टेशन और रेलवे स्टेशन के पास ढाबों में भट्टियों में धुंआ निकलना शुरू होता है। सड़कों के सन्नाटे को सबसे पहले अखबार बेचने वाले तोड़ते हैं। पूरे नगर में एक स्पंदन पैदा होने लगता है। बस अड्डों और स्टेशन के आस-पास के ढाबों में फटी कमीजों में सिकुड़े कुली मजदूर, कामगर भिखारी सबके सब आधा गिलास चाय के लिए अपनी फटेहाल जेब में पैसों को तलाशते हैं।
तनिक सी धूप चढ़ी नहीं कि कारखानों के भोंपू दानवीय आवाज़ों में चीख उठते हैं। पूरा नगर चाभी भरे खिलौने की तरह दौड़ने लगता है। मिलों, कारखानों के सामने काम की तलाश में लंबी कतारें लग जाती हैं।
धूप छिटकती है। प्रत्येक ऊँची इमारत को अपने प्रकाश से नहला देती है। किंतु ऐसे भी गली कूचे हैं जहाँ धूप भी जाने से शरमाती है, घबराती है। वहां के लोग ठिठुरकर यूँ ही जीवन काट लेते हैं।
शाम होते ही धुंध की एक महीन परत पसरने लगती है। सुबह वाले वहीँ भोंपू दहाड़ते हैं। कल-कारखाने और दफ्तर आदमियों की भीड़ को सड़क पर उगल देते हैं। साइकिल में लगी टोकरियों या कंधे पर लटके थैले में कुछ शाक-सब्जियाँ लिए लोगों का सैलाब घरों को लौटने लगता है, जहाँ से उसे कल फिर आना है।
ऊनी थान के सिमटते ही हालात बदल जाते हैं। धूप छिटकते ही बुद्धजीवी और संभ्रांत अपने ठन्डे कमरों में दुबक जाते हैं। वहीँ हज़ारों श्रमजीवी डामर की आग उगलती सड़कों पर फटे चीथड़ों में लिपटे मजदूरी की खोज में भागने लगते हैं। लू के गर्म थपेड़े उन्हें रोजी कमाने से रोक नहीं पाते हैं। सूखे गले को नम करने के लिए भी उन्हें गाढ़ी कमाई के कुछ पैसे ढीले करने पड़ते हैं। क्योंकि नगरों में पानी तो क्या हवा तक बिकती है।
सुबह से शाम मजदूरी में कट जाती है। और रात तारे गिनते, मच्छरों के हमले, हवा का अभाव, तपते फुटपाथ और घने बसे मोहल्ले, कब किसी को सोने देते हैं? रैन बसेरे हैं नहीं। यदि हैं तो अजब होता है वहाँ का माहौल। कोई शराब पीकर नाचता है। कहीं दिन भर की कमाई का बंटवारा होता है। कहीं ताश के पत्तों में दिन की कमाई उड़ाई जाती है। कहीं कोई सोचता है, कौन जल्दी सोए उसकी कमाई साफ़ कर दी जाए। कब कौन मुसाफिर मिल जाए तो उसे लूट लिया जाय। बस इसी उधेड़बुन में रात काट जाती है।
यही तो है नगर और उसकी ज़िन्दगी। चलती है यहाँ ज़िंदगी दो ध्रुवों के मध्य। बहकती है निराश और हताश ज़िन्दगियाँ। इसी नगर-महानगर में।

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