ख़ुशी अप्राप्य और दुर्लभ गुण है। आप किसी से भी मिलें, कम से कम वह खुश तो नहीं मिलेगा। मिलने की औपचारिकताएँ पूरी करने के बाद मेहमान और मेजबान दोनों ही अपने अपने दुःखों को बयानों को लेकर गंभीर हो जाते हैं। जीवन की निष्ठुरताओं को कोसने लगते हैं।
कभी कभी तो ऐसा लगता है जैसे विश्व समाज से ही ख़ुशी की अर्थी उठ गयी है। छोटे या बड़े परदे पर खुशियों की फुलझड़ी छुटाना और शोर मचाना अलग बात है, किन्तु व्यावहारिक जीवन में, यह स्वीकार करना कि हम खुश हैं, बहुत दुष्कर कार्य है।
खुश न होने के अनेक पहलू हैं। किसी को औलाद न होने का ग़म सताता है, तो किसी को औलाद के समायोजित न हो पाने का कष्ट होता है। कोई स्वास्थ्य को रोता है तो दूसरा धनाभाव को। कुछ ऐसे भी हैं जिनके पास सुख और ऐश्वर्य के समस्त साधन हैं फिर भी उनका मन अशांत और दुखी रहता है। किंतु क्यों उन्हें स्वयं भी नहीं मालूम।
संभवतः यही कारण है कि अपने इर्द गिर्द सभी को दुखी पाकर एक दो बिरले जो खुश रहना भी चाहते हैं, खुश नहीं रह पाते। उन्हें भी बना रहता है कि कहीं उनकी ख़ुशी पर ग्रहण न लग जाए और वह भी ग़मगीनों की भीड़ के हमसफ़र हो लेते हैं।
फिर सभ्यता भी ख़ुशी के नकेल डाले हुए है। अंतःमन से खुश रहने वाला व्यक्ति उन्मुक्त हँसी हँसता है। खिलखिलाकर हँसता है। यहाँ तक कि उसकी बत्तीसी भी लोगों को दिख जाती है। लेकिन ऐसी उन्मुक्त हँसी सभ्य समाज के किसी भी कोने में प्रतिबंधित है। ऐसे लोग जाहिल कहे जाते हैं।
वस्तुतः सभ्यता की गुरुता ने हँसी को मुस्कराहट तक सीमित कर दिया है। मुस्कराहट भी वह जिसमें होंठ हौले से और थोड़े से खिचें, अधिक मान्य हैं। ऐसी मुस्कराहट जिसमें होंठ कुछ अधिक खिंच जाएँ और दांत झलक जाएं, असभ्यता ही कही जाएगी।
इन स्थितियों में खुश रहने और ख़ुशी को प्रकट करने का जोखिम भला कोई सभ्य व्यक्ति कैसे उठा सकता है। वह सभ्य बने रहने के लिए अपनी प्रत्येक ख़ुशी को होम कर सकता है। भले ही ऐसा करने से उसके स्वास्थ्य पर कुप्रभाव ही क्यों न पड़े ?