एक कबीर चाहिए

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बोली अक्खड़ी। स्वभाव फक्कड़ी। मन निर्मोही। चाल में मस्ती। चलन में दुरुस्ती। विश्वास अटल। गहन संवेदनाएँ। आडम्बर विहीनता। ऐसे ही तो थे कबीर। आज भी कुछ लोग दावा करते हैं कबीर के समतुल्य होने का। पर आज कोई भी कबीर-सा नहीं। इसीलिए पुरातन किन्तु चिर-परिचित कबीर की जरूरत है। ऐसा कबीर जो कहे वह करे। जो करे वही कहे। जो न करे न कहे। जैसा है वैसा दिखे। ढकोसलों और प्रवंचनाओं से दूर, सच और सचमुच सत्य का पाठ पढ़ाए। जीवन की वास्तविकता समझाये। वह वास्तविकता जिसे हम भूल चुके हैं। जिसे हम ताक पर रख कर न जाने किन अव्यवहारिक आदर्शों और ढकोसलों को समाज पर थोप चुके हैं।

वह जो अपरिग्रह का पाठ सिखाते हैं स्वयं अपरिग्रह की मृगतृष्णा से बच नहीं पाए हैं। संग्रह के पीछे पागल हैं। अधर्म की आड़ में जीवन जीकर भी दूसरों को धर्म का पाठ पढ़ाने से बाज नहीं आते । धर्म-अधर्म के भेद से अनभिज्ञ वह दूसरों को दोनों में भेद बनाने का दम भरते हैं।

सब तरफ प्रवंचना, छलावा और धोखा है। हम बहक रहे हैं। जो वेदों में है। पुराणों में है। महाभारत में है। गीता में है। हम उसे पढ़ते नहीं। टीकाकार जो बताते हैं या जिस तरह हमें बताते हैं उसको सुनने के लिए हम लालायित हैं।
चापलूसी, मक्कारी, धूर्तता का बाजार गर्म है। सभी तरफ दूध से नहाये बगुले हैं । आकर्षक हैं । आकर्षक लगते भी हैं। शिकार पकड़ना भली प्रकार जानते हैं। यही सभ्यता का तकाजा है। जो बुरा है उसे सुंदरता में गढ़कर सामने कर दो। जो सुंदर है उसे विलुप्त कर दो।

धर्म की दुहाई देकर कमजोरों, गरीबों और अबलाओं को मर्यादाओं में रहने का पाठ पढ़ाओ। बल से या बहका कर उन्हें दबाओ। भयभीत करो। हमारा दावा है। हम प्रजातांत्रिक हैं। हम शिक्षित हैं। हम एडवांस हैं। ज्ञानी हैं। और सब कुछ हैं। परम सत्ता से भी आगे हैं। हमने सब कुछ पैदा कर लिया है। पेड़ से लेकर जानवर और जानवर से लेकर इंसान के क्लोन बना लिए हैं। शायद इसीलिए हम भटक गए हैं। असभ्य हो गए हैं। सभ्यता शीशे की अलमारियों में बंद है। दूर से झाँक रही है। हम उसे तकते हैं। उसका सानिध्य नहीं मिलता।

हमारा अहंकार हमें झूठ पथ पर ले चला है। आत्म प्रवंचना की ओर ले चला है। हम खोखले हो चले हैं। आदर्श विहीन, विचार विहीन और सद्गुण विहीन हो चले हैं। अगर कुछ भी शेष है तो शिक्षकत्व भाव। हम सबके शिक्षक बन बैठे हैं। जो नहीं हैं, वह दिखाते हैं, लोगों को वैसा बनने को कहते हैं। पर कोई सुनता नहीं। वह हमारी सच्चाई जानते हैं। जानते हैं हम जो कहते हैं करते नहीं। हमारे दोहरे मानदण्ड हैं। दोहरे आचरण हैं। फिर भला वह अपनी राह ही क्यों न चले। दोहरे चरित्र के धनी बनकर वह भी समाज में सम्मान पाएँ।

ऐसी ही विकट परिस्थितियों से निपटने के लिए हमें जरूरत है एक कबीर की। उस कबीर की जो अन्दर और बाहर से एक हो। जो सत्य की प्रतिमूर्ति हो। आचरण में इकहरा हो। बेपरवाह, मस्त अलमस्त हो। न राजा का भय, न धन का मोह, न रंक होने की परवाह। वही कहे जो उसे जंचे। कोई माने या न माने। लोगों को जगाए। अक्खड़ी ओर फक्कड़ी बनकर। यह कबीर ही कर सकता है। इसीलिए कबीर की जरूरत है। हमें एक और कबीर चाहिए। एक और कबीर चाहिए।

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