यह जानते हुए कि संसार धोखा है, मिथ्या है, क्षण भंगुर है। फिर भी हम इसे सत्य मान बैठते हैं। और धोखे में रहते हैं, धोखे में जीते हैं, धोखे में मरते हैं, धोखे में बड़े से बड़े काम संपन्न करते हैं। धोखे से ही हम दूसरों पर विश्वास करते हैं। धोखे में रहना हमारी नियति बन गयी है। ऐसा हम क्यों करते हैं संभवतः इसलिए कि हम खुशियों को स्वयं से दूर न कर दें।
फिर भी हम धोखे से घबड़ाते हैं। कहीं यहाँ न धोखा खा जाएँ। कहीं वहाँ न धोखा खा जाएँ। यह विचार हमें तनावग्रस्त रखते हैं। हम अपने जीवन की प्राथमिकताओं को भूल जाते हैं। भाग्य की विडंबनाओं में उलझ जाते हैं।
धोखे से बचने के हम अनेक प्रयास करते हैं, किन्तु असफलताओं के मूल में हमें सदा धोखा ही नज़र आता है। वैवाहिक संबंधों में दरार का कारण धोखा होता है। रूग्णता से हुई मृत्यु के पीछे इलाज़ में कहीं धोखे का आभास होता है। प्रेम में असफलता धोखे के सर माथे जाती है। पढ़ाई-लिखाई या नौकरी में असफलता हमारे धोखा खा जाने के कारण होती है।
हाँ हमारी सफलताएँ जरूर कभी धोखे से नहीं होती। उसके पीछे हमारी कुशाग्रता, दूरदर्शिता, कठोर परिश्रम, चतुरता और बुद्धि बल होता है। यह बात दीगर है कि किसी के लिए बिल्ली के भाग्य से शिकहरा टूट जाए लेकिन ऐसा सबके साथ नहीं होता।
वस्तुतः धोखा वह बदनाम स्थिति है जहाँ व्यक्ति का अहम् अपनी असफलताओं को अपनी ही अक्षमताओं का कारण नहीं मानता। अपनी असफलताओं का श्रेय वह सहज भाषा से दूसरों के सिर मढ़ देता है। अपने को निरीह साबित करने की दृष्टि से वह मात्र यह कहकर संतोष कर लेता है कि काश वह धोखे का शिकार न होता, तो सफलताएँ उसके कदमों पर मचलने को बेचैन थी।
धोखे को मुजरिम या दोषी ठहराकर व्यक्ति अपने अहम् को सुरक्षित कर लेता है। उसकी निष्ठा, कर्तव्य परायणता और ज्ञान चुनौती के दायरे में नहीं आती। आलोचनाओं का शिकार न बनकर वह सहानुभूति का बेचारा पात्र बन जाता है। वह अपनों की कमियों को दूसरों की आँख में धूल झोंककर छिपा ले जाता है।
कुछ भी हो धोखे में रहना, धोखा खाना और धोखा देना हमारी प्रगति की एकल सीढ़ी है। धोखे में रहने का सबब है कि हम ज़िंदा हैं। हम आगे बढ़ रहे हैं। जिस दिन हमें अपनी आयु के विषय में धोखा खत्म हो जाएगा और यह पता लग जाएगा कि हमें कितने वर्ष जीना है तो संभवतः हमारे हाथ पैर ढीले हो जाएंगे।
जिसदिन गंभीर रोग से पीड़ित किसी व्यक्ति को यह पता लग जाएगा कि उसकी बिमारी लाइलाज है। वह उसके प्राण लेकर ही जाएगी उसके जीवन के दिन आधे रह जाएंगे। किन्तु जबतक वह धोखे में रहता है कि वह ठीक हो जाएगा, वह अज्ञात ख़ुशी से स्वस्थ होने की कल्पना में डूबा रहता है। पीड़ा में भी खुशियाँ उसे ढांढस बांधती दिखाई देती हैं। वस्तुतः व्यक्ति धोखे में रहते हुए अपने चारों ओर खुशियों का सृजन करता है। आह्लादित रहता है।
सबकुछ नश्वर है। सबकुछ मिथ्या है। यह जानते हुए भी व्यक्ति इस धोखे में कि कल उसका अपना है, जीवित रहता है। प्रसन्नचित्त रहता है। कल की सच्चाई यदि उसे पता लग जाए तो संभवतः वह एक पल भी जीवित न रह सके।
यही नहीं धोखा ज्ञान का भी कारक है। धोखा खाकर ही हमारे ज्ञान चक्षु खुलते हैं। भविष्य के लिए हम सावधान होते हैं। आत्म मंथन को विवश होते हैं। नए सिरे से नई दिशा में बढ़ते हैं। वस्तुतः धोखा खाना हमारे हित में है।
धोखा देना, धोखा खाना, धोखे में रहना, यह तीनों अलग अलग क्रियाएँ हैं। धोखा देना सामाजिक और नैतिक अपराध है। धोखा खाना मूर्खता। धोखे में रहना आवश्यक बुराई है। धोखा देना अनुचित है। धोखा खाना विवशता, मज़बूरी। धोखे में रहना खुशियों को जोड़ने के समान है। धोखा खाकर हम संभलते हैं। सचेत होते हैं।
धोखा देने वाले ही वस्तुतः हमारे सच्चे मित्र होते हैं। हमारी आँखें खोलते हैं। हमारी कमियों को उजागर करते हैं। हमारे दिवास्वप्नों को भस्मीभूत करके वह हमें व्यावहारिकता की कसौटी पर खड़ा करते हैं।
फिर जब सारा संसार धोखा है और हम इसी धोखे की गोद में खेलकूद कर बड़े हो रहें हैं तो इसके लिए आवश्यक तनाव क्यों? किसी पर धोखेबाज़ी का आरोप क्यों?