जड़ और चेतन दोनों पर धन का बहुत प्रभाव है। धन के पीछे चेतन प्राणी ही नहीं जड़ पदार्थ भी लगे रहते हैं।
दुन्दुमिस्तु सुतरामचेतनः
तन्मुखादपि धन-धन धनम
इत्थमेव निनदः प्रवर्तते
किं पुनर्मदी जनः सचेतनः।
नगाड़ा तो बिल्कुल जड़ होता है। पर उसके मुख से भी धन-धन-धन का शब्द सुनाई देता है। फिर यदि चेतन प्राणियों के मुख से भी धन-धन ही सुनाई दे तो क्या आश्चर्य।
लेकिन धन प्राप्ति के सभी उपाय मन का मोह बढ़ाने वाले हैं। यह उपाय ही कृपणता, दर्प, अभिमान, भय, और उद्वेग दोषों को बढ़ावा देते हैं। धन का स्वभाव चंचल है। वह कर्म भाग्य से आता है और जाता है। जैसे रथ का पहिया इधर-उधर नीचे ऊपर घूमता है वैसे ही धन भी विभिन्न व्यक्तियों के पास आता जाता रहता है। वह कभी एक स्थान पर स्थिर नहीं रहता । अक्सर वह असमय के मेघ के समान अकस्मात आता है और चल जाता है-
ओ हि वर्तन्ते रथयेव चक्रः।
अन्यमन्यमुपतिष्ठन्त रायः।।
मनुष्य को अधिक धन की अपेक्षा अवश्य करनी चाहिए किन्तु उसे अपने थोड़े धन की अवमानना भी नहीं करनी चाहिए। जिस प्रकार घी से सिक्त होने पर थोड़ी सी भी अग्नि धधक उठती है, एक बीज हज़ारों बीजों में परिणत हो सकता है।
धन प्रप्ति पर व्यक्ति को धन का अर्जन, वर्धन ओर रक्षण करना चाहिए। बिना कमाये खाया जाता है धन सुमेरु पर्वत के समान होने पर भी नष्ट हो जाता है।
कहते हैं कि ” मोहानधमविवेक हि श्रीशिचराय न सेवते।” मोहान्ध तथा अविवेकी के समीप लक्ष्मी अधिक समय नहीं रहती वह चली जाती है।
धन की तीन गतियाँ होती हैं- दान, भोग, ओर नाश। जो न धन दान देता है और न उसे भोगता है उसके धन की तीसरी गति हो जाती है। वस्तुतः धनी व्यक्ति जो दान देता है और जिसका भोग कर लेता है वह उसका सच्चे अर्थों में धन होता है।
ख़लील जिब्रान कहते हैं कि धन तारों वाले वाघ यंत्र के सामने है जो उसका भली प्रकार से उपयोग करना नहीं जानता, केवल कर्कश संगीत ही सुनेगा। जो उसे रोके रहता है , उसे धन प्रेम के समान है। वह उसे धीरे-धीरे ओर दुःख देकर मारता है। और उसे वह जीवन प्रदान करता है जो उसे अपने साथी मनुष्यों पर उड़ेल देता है।