समीक्षा : दरीचे मन के

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प्रत्येक नयी कविता संग्रह अभिनन्दनीय होती है। उसके आँचल में जाने कितने सितारे जगमगाते हैं अनुभवों की किलकारियाँ गूँजती हैं। कहीं आंगन के वृक्ष के नीचे यादों की कहानियाँ अनायास याद आ जाती हैं। संसार के सुख-दुख और दर्द से जुड़ी होती हैं कविताएँ। उन्हें उघारने पर कविता बोलने लगती है। डॉ. सुजाता वर्मा की कविताओं में सृजनात्मक सोच गहरे रूप में देखने को मिलती है यह विभिन्न कविताओं में प्रस्फुटित होती है। कविताओं में कहीं प्रखर बौद्धिकता झलकती है तो कहीं अकेलेपन की पीड़ा। एक ऐसी पीड़ा जो टूटती नहीं न निराश होती है क्योंकि कवियित्री संघर्ष में जीवन तलाश लेती है। यह उनकी कविता का अनिवार्य हिस्सा है जो उनकी कविताओं के साथ-साथ यात्रा करती है। उनकी भावनाएँ बिखरती नहीं। उन्हें संजोये रखती है और जब कभी उन्हें यह बेचैन करती है कवियित्री एक नयी जमीन की कविता को जन्म देती है।

कविता जब अखबारीपन की ओढ़नी ओढ़ लेती है तो वह कविता न होकर अखबारी बुलेटिन बन जाती है। समकालीन कविताओं की एक प्रकृति यह भी है कि कई बार लगता है कि हम कविता नहीं किसी घटना का समाचार पढ़ रहे हैं। केवल सपाट बयानी बनकर रह जाती है। कविता निजीपन का आइना है अनुभवों का दस्तावेज है। दर्द और पीड़ा की दास्तान है। कविता बच्चे की तरह किलकारियाँ मारती है पर जरा-सी ठेस में बिलख उठती है। कहीं अन्तःमन दुखी हो जाता है। कवि अन्दर ही अन्दर रोता है।
उसका जीवन दर्द से भरा होता है। किंतु कवियित्री सुजाता की कविताएँ कहीं कंजोर नहीं पड़ती। उनका विश्वास और आत्मबल पाठक को शक्ति प्रदत्त करता है। ऐसा इसलिए की कविता मानवता का एक रूप है। सुजाता वर्मा की कविताओं का परिदृश्य समकालीन समाज की समस्याओं से हमें रु-ब-रु कराती है। उनकी कविताएँ स्वतः हमसे बतियाती हैं संवाद करती हैं। प्रश्न करती हैं और उत्तर भी देती हैं। एक ही समय में कविता के अनेक आयाम दिखायी देते हैं जो इस बात के प्रमाण हैं कि कवियित्री एक साथ कई जिंदगियाँ जी रही है। यह उनकी कविता में सहज ही दिखाई पड़ता है। यह सच है कि पीड़ा कवियित्री को रुलाती है। दुःख के सागर में डूबोती है पर कालान्तर में पीड़ा अन्दर-ही-अन्दर एक आवाज देने लगती है। यह आवाज कविताओं में गूँजती है। इसीलिए सृजनता के क्षेत्र में नित्य नई से नई कविता का जन्म होता है। धरा कविता से कभी शून्य नहीं होती। कविता के तानटेन्ट बदलते रहते हैं। शैली बदलती रहती है। इसीलिए कविता की नयी जमीन सदैव नयी कविता को या समकालीन कविता को अपने रंग में रंगती है। सुजाता वर्मा की कविताएँ स्वतः अपना परिचय देती हैं।

कवियित्री की कविताओं की भाषा आम आदमी की भाषा है जो सहज ही पाठक को कविता ही भावना व विषय से रू-ब-रू कराती है। कविता उसी भाषा की पैरवी करती है जिसे हम जानते हैं। सरल शब्दों में गंभीर से गंभीर समस्याओं को व्यक्त करना सुजाता जी की विशेषता है। सुजाता जी की छोटे और मझले आकार की कविताएँ हैं और इनमें कहीं गहरी सोच विद्यमान है। यह भी उतना स्वाभाविक है कि कविता में निजीपन का होना। पर यह निजीपन ऐसा है जो सामाजिक सरोकारों में घुले-मिले हैं। यही वजह है कि उनकी कविताओं में आम आदमी का रोजनामचा दिखाई पड़ता है। उनकी कविताओं में वेदना कहीं गहरे रूप में देखने को मिलती है।
कवियित्री का दर्द व पीड़ा ऐसा है जो बर्फ की तरह अन्दर ही अन्दर घुलता है। इसीलिए नाजुक एहसासों से कविता-रेशमी अनुभूतियों को सहज बनाना कवियित्री की कविताओं की खूबी है। कवियित्री के संघर्ष की आँच कविता को दर्द का दस्तावेज बना देती है।

समकालीन कविताओं का छितिज विशाल है। आकाश की तरह फैला हुआ जिसमें तरह-तरह के नग चमकते हैं। समकालीन कविताओं में गली-कूचें, महानगरीय अट्टालिकाएं, बड़े मॉल और बाजार देखने को मिलते हैं। वहीं यांत्रिक संसार और वैश्वीकरण के प्रभाव से जूझती कविताएँ हैं। इन कविताओं का जहाँ फार्म अलग है वहाँ तानटेन्ट भी आधुनिक है जिसमें महानगरीय जीवन की त्रासदी, आधी-दुनिया का शोषण भ्रष्टतंत्र के विशाल खूनी पंजे नित्य आम आदमी का खून चूसते हैं। एक भूखी-पीढ़ी हाशिये पर पड़ी कराह रही होती है। सुजाता जी ने समय की धड़कन को महसूस किया है। समय की नब्ज़ को पकड़ा है। व्यक्ति के जीवन की हरारत को नापा है। यह कहना अनुचित नहीं होगा की कविता विशुद्ध स्वातंत्र्य घटना नहीं है बल्कि इसे आर्थिक-सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनैतिक परिदृश्य की सापेक्षता में देखा जाना चाहिए। इसीलिए समकालीन कविता की प्रक्रिया का स्ट्रक्चर टूटता बनता रहता है। यह कविता की जीवन्तता की पहचान है। इसी तरह समकालीन कविता यथार्थ को रूमानी दृष्टि से नहीं देखती। कवियित्री सुजाता की अधिकांश कविताएँ यथार्थ का चित्रण करती हैं। यह यथार्थ कहीं चित्रात्मक शैली में दिखायी पड़ती है। घटना सजीव रूप में सामने खड़ी हो जाती है। जैसे ‘बाल-श्रमिक’, ‘गरीब बच्चे’ कवियित्री का व्यंग्य अलौकिक है। मानवीय जगत के रिश्तों का आधार है। कवियित्री उसी प्यार की तलाश करती दिखाई देती है।
‘चलो हम ढूढें अपना प्यार। जगत का केवल जो आधार ।
और उसी में खो जाय एक बार । धरा की सरहद के उस पाए।।

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जिंदगी की संध्या में ऐसे दर्द भरे विचार आते हैं । दर्द के कैनवास पर यह पूरी तरह कविता उतरती है। कवियित्री के अंत:मन कि आवाज है कि वह अपने प्रिय से बिछड़ने जा रही है । कितनी गहरी वेदना को संजोय हुए वह प्रिय से कहती है। मुझे भूल मत जाना चाहे जैसी भी परिस्थिति हो मुझे अपने से अलग मत करना ।
कोई भी वक्त आ पड़े
हमे भूल न जाना
जिंदगी में कभी खोटे सिक्के
की तरह निकाल न देना ….
….जब कभी दूर
तुमसे हो जाएंगे
तो भी हमें भुला न देना ।

यह पूरी कविता पढ़ते-पढ़ाते आँसु छलक जाते हैं। कवियित्री में कितना गहरा प्यार अपने प्रिय के लिए । संग्रह की यह सर्वश्रेष्ठ संवेदनशील कविता है।

मृत्यु तो शाश्वत है। एक नवीन प्रयोग प्रतीक के माध्यम से करती है- गरम तवे पर । जल बूँद सा । तड़प कर। प्राणों को निकलते देखा है।
कविता मंथन में इसी तरह का भाव है। इस मायालोक के सारे सम्बन्धों का एक समय है प्रकृति के पतझड़ की तरह। कहती है-

छूटते हैं, मिलते हैं साथी।
बनते और बिगड़ते हैं नाते ये रिश्ते दुनिया के।
पर अंत समय जब चलता है इंसान।
अकेला क्यों वह जाता है।
यही मैं सोचा करती हूँ।

सम्बन्धों से बिछड़ने की पीड़ा बन्द फोड़े की तरह भीतर-ही-भीतर, कवियित्री, दर्द को जीती है। बिछड़ने की कल्पना से ही वह सहम जाती है । ठीक ऐसी भावना में गुंथी कविता ‘उन्मन विवश हूँ’ कहती है-

कविता ‘शबनमी बूँदें’ प्रकृति के दृश्य से उठती है और कविता के अंत तक आते-आते अखबार के पन्नो पर जब आती है तो आहत होती है कि बलात्कार, अपहरण को पढ़कर । कवियित्री अनायास ही कह उठती है-

”दर्द । तिरने लगता है । सुबह के सुखद छड़। पीड़ा में। बदल जाते हैं।”

संसार में माँ का कोई विकल्प नहीं है और नारी का भी। क्योंकि लड़की भी तो कभी-न-कभी माँ बनती है। उसका दुलार उसका प्यार। उसका रात-रात भर जागकर बीमार बच्चे की परवरिश करना । माँ की दृष्टि में बच्चे की एक-एक चीख सामने रहती है। माँ तो ममतामयी है। माँ का वह गूँगा दर्द जो युवा होने पर बच्चे बड़े होकर अपनी राह पकड़ लेते हैं। यह अनकही कसम माँ अंदर-ही-अंदर पीती है फिर भी वह बच्चों को आशीर्वाद देती है। कविता ‘याद नहीं रहती गोद’ इसी व्यथा को व्यक्त करती है। पर माँ का ममत्व कह उठता है- कुछ नहीं कह पाती है। वह दुआएँ। सदा देती है।

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इसी तरह ‘माँ का दुलार’ कविता है-
“किसी भी एंटीबायोटिक’ से प्रबल है माँ का दुलार”

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कवियित्री आधुनिक समय के अर्थतंत्र में प्रवेश करती है जहाँ रिश्ते बासी बनते जा रहे हैं। उनकी सिनसियरटी गुम होती जा रही हैं। औपचारिकता जीवन का हिस्सा बन गयी। मशीन की तरह कृत्रिम व्यवहार व्यक्ति का बन गया है। आधुनिक रिश्ते औपचारिकता में गूथ गये। रिश्ते दिखावटी बन गए। भीड़ में रिश्तों की सम्वेदना कहीं पीछे छूट गयी। रिश्तों की भीड़ बढ़ती गई और अपनापन कहीं खो गया। ‘रिश्तों का साया’ इसका उदाहरण है, रिश्तों पर कई कविताएँ हैं जैसे रिश्ते घसीटे जाते हैं- लिखती हैं-
रिश्तो का साइज। व डिजाईन। हरपल।
बदलता गया।

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गाँव के बदलते स्वरूप से कवियित्री को काफी दुख है। अब गांव दिखते नहीं। गांव में शहर दिखते हैं। किस तरह महानगरीय समाज में व्यक्ति की जीवन शैली और कार्यशैली बदल जाती है। ‘महानगरीय जीवन’ की कविता से देखने को मिलता है। इस शहरी संस्कृति में मानवता सिसकियां लेती दिखाई पड़ती है। यहाँ इंसान बनाने की खेती नहीं होती। यहाँ से इंसानियत के रिश्ते धीरे-धीरे खिसकते जा रहे हैं। व्यक्ति केवल एक मशीन का पुर्जा बनकर रह गया है। कविता ‘रावण जी उठता है’ व्यंग की कविता है। रावण हर वर्ष मारा जाता है- अगले वर्ष विशालकाय रूप में अवतरित होता है। यह कविता भ्रष्ट समाज पर तीखा व्यंग है जो हकीकत को बयान करती है। उनकी अनेक कविताएँ प्रेरणा दायक भी हैं। ‘निरंतर जियो’, ‘थपेड़ों में जीवन’, जीवन-गीत’, ‘तुम स्वप्न हो’, ‘जिंदगी संघर्ष नदी’।

कविता ‘गरीब बच्चे’ बच्चों के यथार्थ जीवन की दास्तां है। उनके पिचके पेटों की कहानी है। जसके पास न घर है न रोटी। बस दर-दर की ठोकरें हैं। पशुओं की तरह दुतकारे जाते हैं। चोर बनाकर जेल भेजे जाते हैं। यह भारत की भूखी पीढ़ी है जो हाशिये पर पड़ी कराहती रहती है। इन बच्चों को कोई नहीं दुलारता, पुचकारता। कोई भी पास खड़े नहीं होने देता। ये ज़िंदा होते हुए भी जिंदा नहीं हैं। ‘तिरस्कृत नारी’ नारी के अतीत और वर्तमान की पीड़ा की कहानी है। इस तरह ‘नारी की विवशता’ भी इसी शोषित नारी पर लिखी कविता है। आज के इंसान पर कटाक्ष करती कविता ‘खो गया इंसान’ कवियित्री लिखती है।
स्वार्थ के सिमटे क्षणों में खो गया इंसान।
सोचती हूँ जीते जी क्यों? मर गया इंसान।।

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‘खोजती हूँ बचपन’ कविता बचपन की यादों पर लिखी गई। बचपन की यादें सदैव हमें ताजगी देती हैं। उनमें डूबकर हम एक बार फिर बचपन में लौट जाते हैं। आखों की जेबों में बचपन के मनोभाव तैरने लगते हैं। पर ढलती आयु में बचपन कहीं गुम हो जाता है। इसकी पीड़ा कविता में दिखती है।
”उम्र की तेज दौड़ में। वह बचपन बिछड़ गया। और अब तो।
बिछुड़ ही गया।…

‘बर्फीली होती संवेदनाएं’ तकनीकी युग की मुर्झाती संवेदनाओं को दर्शाती हैं। वे शब्द जो व्यक्ति को व्यक्ति से जोड़ते हैं। वे भाव शब्दों में नहीं रहे फिर लगाव वा प्यार कैसे हो। इस मशीनी युग में आदमी मशीन का एक पुर्जा बन कर रह गया है। इसलिए शब्द बर्फ की तरह ठंडे हो गए हैं। कवियित्री ये राष्ट्रप्रेम की भावना भी गहरे रूप में है। तभी वह ‘हमारा झण्डा’ जैसी कविता लिखती हैं।

डॉ. सुजाता वर्मा का कविता संग्रह ‘दरीचे मन के’ भावनात्मक जमीन पर एक सशक्त संग्रह। एक संवेदनशील रचना है। आज के बनावटी और औपचारिक रिश्तों से वह दुखी भी हैं और आहत भी। उनका कविता का छितिज विशाल है। विशालता के आकाश में उनकी कविताओं में अनेक नग चमकते हैं। जैसे रात के अंधियारे में चमकते हों तारे । वास्तव में अच्छी कविता को जितनी बार पढ़ो हर बार नए-नए अर्थ व भावों से मुलाकात होती है। उनकी अंतिम कविता ‘हमें भूल न जाना’ को बार-बार नमन करता हूँ। इसे पढ़ते-पढ़ते आँखें डबडबा गईं। दर्द के आँसू छलक गए। कविता का संबंध दिल से है। जज्बात से है। भावना से है। मैंने कहीं अपने कविता संग्रह में लिखा है-
तर्क से आज जीत जाता आदमी ।
दिल नाम की कोई चीज न होती।
मैनें तो हर जगह दिल के आगे शिकस्त खाई है।

समीक्षा  :  दरीचे मन के
(डॉ. सुजाता वर्मा की कविताओं से रु-ब-रु होते हुए)
 कवि डॉ. वी.एन. सिंह, यू. पी. रत्न

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