जिज्ञासा मानव मन का सहज गुण है। ज्ञानी-अज्ञानी तथा शिक्षित व अशिक्षित सभी के मन में जिज्ञासा का भाव होता है। प्रमुख मनोवैज्ञानिक बर्क के अनुसार, ‘पहली और सहज भावना जो हम मानव मन में पाते हैं- वह है जिज्ञासा।’ अंतर है तो तीव्रता का। किसी के मन में तीव्रतर जिज्ञासा भाव उसे समस्त सांसारिक सुखों का परित्याग कर ईश्वरीय सत्ता के रहस्य को जानने के लिए प्रेरित कर देता है, किन्तु सामान्य तीव्रता भाव व्यक्ति को सांसारिकता में लिप्त रहते हुए सृष्टि के रहस्यों को जानने के लिए उत्प्रेरित करता है। ओशो के अनुसार जिज्ञासा कुछ पूछने के लिए होती है। उसे उत्तर की तलाश है, लेकिन तलाश बौद्धिक है, आत्मिक नहीं। जिज्ञासा से भरा हुआ व्यक्ति निश्चित ही उत्सुक है और चाहता है कि उत्तर मिले, लेकिन उत्तर बुद्धि में संजो लिया जाएगा, स्मृति का अंग बनेगा, ज्ञान बढ़ेगा, आचरण नहीं।
जिज्ञासा भाव सीमाविहीन और अविराम होता है। इसका अंत नहीं होता। एक जिज्ञासा शांत नहीं होती, दूसरी उत्पन्न हो जाती है। सामान्य व्यक्ति के लिए जिज्ञासा संतुष्टि स्वातः सुखाय होती है। ज्ञानी व्यक्तियों में जिज्ञासा संतुष्टि परांतः सुखाय निर्मित होती है। दोनों ही श्रेणी के जिज्ञासुओं को अपने अभीष्ट को पाने में सफलता तब मिलती है जब वे जिज्ञासा धर्म का अनुशरण एवं अनुपालन करते हैं। हृदय मंथन, आत्मचिंतन, वृत्ति नियंत्रण और विचार शुद्धता जिज्ञासा धर्म के प्रथम सोपान हैं। इन सोपानों को अनदेखा कर जो जिज्ञासा-अरण्य में कुछ ढूंढ़ निकालने के उद्देश्य से विचरण करते हैं, वह कुछ दूर चल कर धैर्य खो देते हैं। ईश्वरीय सत्ता के रहस्यों से रूबरू होने के प्रयास में निरंतरता, निश्छलता, निस्वार्थता, सहजता, सरलता, निस्पृहता, उदारता, दृढ़ इच्छाशक्ति एवं निडरता का समावेश आवश्यक है। इन गुणों से परे जिज्ञासु अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में असफल रहता है। लक्ष्य प्राप्ति के लिए तो उसे सघनतम चुनौतियों का सामना करने के लिए तैयार रहना चाहिए। कबीरदास जी ने इसी गंभीर चुनौती को द्रष्टिगत रखते हुए कहा था- ‘जिन ढूंढा तिन पाइयां, गहरे पानी पैठ, मैं बपुरा बुड़न डरा रहा किनारे बैठ ।’ वस्तुतः सफल जिज्ञासु वही है जो जिज्ञासा पूर्ति के लिए ईश्वरीय सत्ता को अपना सब कुछ अर्पण कर दे।