धन के पीछे जड़-चेतन सब पड़े रेहते हैं। धन को सुख का साधन माना जाता है। पर क्या धन सचमुच सुख का साधन है?
अर्थानामर्जने दुःखं
अर्जिताना च रक्षणे।
आये दुःखं व्यये दुःखं
धिरगार्थन: कष्टसंश्र्या।।
धन कमाने में दुःख। कमाकर रखे धन की रक्षा में दुःख। आय हो तो दुःख। व्यय हो तो दुःख। धन तो सुख का कहाँ केवल दुःख का हेतु है। इसिलिए धन को धिक्कार है। पर धन को धिक्कारने से भी न धन की महिमा कम होती है, न धनवान की। दोनों अपने स्थान पर अटल हैं। धन को धिक्कारने वाले भी धन की महिमा से अपरिचित नहीं हैं। धन के पीछे अपनी सारी जिंदगी अतीतकर देने वाले भी उसके कष्टकारी पहलू से अपरिचित नहीं हैं। धनवान की स्थिति कुछ ऐसी है जैसे मांस के टुकड़े की।
यथामिष जले मतस्यै:
भच्छयते श्वापर्दभुरवी।
आकाशे पछिभिश्चैव
तथा सर्वत्र वित्तवान।।
माँस को जल में मछलियाँ नहीं छोड़ती। भूमि पर हिंसक जंतु नहीं छोड़ते और आकाश में पंछी नहीं छोड़ते। वैसे ही सब स्थानों पर धनवानों की गति होती है। नन्हें जल स्थल और आकाश में कहीं भी पीछा करने वालों से छुटकारा नहीं । अब बेचारा धनवान किधर जाए?
धनवान की बहुत कुछ स्थिति वैसी ही होती है जैसे गुड़ की। कहते हैं कि एक बार गुड़ अपनी ज़िंदगी से परेशान होकर भगवान के दरबार में शिकायत करने पहुँचा। गुड़ ने करबद्ध होकर विनयपूर्वक कहा – ‘हे भगवान। में बहुत परेशान हूँ, गरीब मुझे खाते हैं। अमीर मुझे खाते हैं। बूढ़े मुझे खाते हैं। युवक मुझे खाते है। युवतियाँ मुझे खाती हैं । आदमी मुझे खाते हैं। जानवर मुझे खाते हैं। गाँव वाले मुझे खाते हैं। शहर वाले मुझे खाते हैं। सारी वसुन्धरा पर कहीं कोई मेरी व्यथा सुनने वाला नहीं है। इसलिए अब आप की शरण में आया हूँ । आप अशरण-शरण हैं, जिनकी कहीं सुनवाई नहीं होती उनकी आप के दरबार में ही सुनवाई होती है।
हे दीनबंधु। करुणा सिन्धु। मुझे इन भछकों से बचाइए। पाहिमाम, रछमाम।।’
भगवान ने दत्तचित्त होकर गुड़ की कथा-व्यथा सुनी उसकी दिन दशा देखकर करुणानिधि का हृदय द्रवित हो उठा। उन्होंने अपनी आंख उठाकर देखा तो गुड़ को अपने चरणों के निकट शाष्टांग दण्डवत पाया। कुछ देर तक भगवान गुड़ की इस मुद्रा को देखते रहे और फिर स्वस्थचित्त होकर बोले- ‘गुड़ देवता। तुमने जो दुनिया भर की शिकायत की है, वो शिकायत तो ठीक है, पर इसमें सारा दोष तुम्हारे मीठे पन का है।ना तुममें इतनी मिठास होती, न सब तुम्हारे पीछे पड़ते। अब आगे जो बात करनी हो, वो थोड़ा परे हटकर करो। तुम्हें देखकर मेरे मुँह में भी पानी आने लगा है।’
‘पर क्या गुड़ अपनी मिठास छोड़ सकता है।’
न गुड़ की मिठास छूटे, न मिठास के चस्के वालों से गुड़ छूटे।
वही स्थिति धन और धनवानों की है।