अपेक्षा से उपेक्षा तक सफ़र बड़ा रोमांचक होता है। यह सफर जीवन में अनेक संबंधों को जोड़ता-तोड़ता एक ऐसे व्यक्तित्व का निर्माण करता है जिसके बारे में व्यक्ति स्वयं भी अपने से अपेक्षा नहीं करता।
वास्तव में अपेक्षा एक ऐसा भाव है जो व्यक्ति के गुणों और अवगुणों के साथ विकसित होता जाता है। अपेक्षा से उस व्यक्ति के प्रति मन में एक धारणा बन जाती हैं कि वह व्यक्ति अमुक व्यक्ति से अच्छा है। यह आगे चलकर तरक्की करेगा या सबका ख्याल रखेगा। अवगुण से युक्त व्यक्ति से अपेक्षा रहती है यह कटु बोलेगा।
किन्तु, जीवन में दुखों का सबसे बड़ा कारण अपेक्षा है। दूसरे शब्दों में…. किसी से अपेक्षा करना ही दुखों का मूल है। मानव जीवन जन्म लेते ही अनेक रिश्तों और सामजिक बंधनों में बंध जाता है। धीरे धीरे अपने समाज के प्रति और परिवार के प्रति वह जुड़ता जाता है। परिवार में रहने वाले सदस्य व समाज के व्यक्ति उससे आशाओं के धागों से बंधने लगते हैं। यह धागे ही अपेक्षा हैं। और वही व्यक्ति जब इन अपेक्षाओं में खरा नहीं उतरता तो अपेक्षा के धागे टूटते हैं, जिससे कष्ट होता है। उस व्यक्ति से अपेक्षा ही समाज और परिवार के प्रति कष्ट का कारण बनती है।
अपेक्षा सांसारिक होती है। व्यक्ति का संसार से जुड़ना और सांसारिक रुपी उपवन में सदैव सुगंध की अपेक्षा करना और दुर्गन्ध रुपी उपेक्षा के बारे में तैयार न रहना दुःख का कारण है। यह सच है कि अपेक्षाओं में समाहित करो संसार तो कष्ट होता है। यदि अपेक्षा पूर्ण नही होती है तो व्यक्ति अपने आपको उपेक्षित महसूस करता है। यही उपेक्षा उसके क्रोध का कारण बनती है। कभी-कभी यही उपेक्षा विध्वंसक रूप धारण कर लेती है और कभी रचनात्मक या सृजनात्मक रूप में व्यक्ति अपने को धीरे धीरे अपेक्षाओं से मुक्त कर अपने कर्तव्यबोध से जुड़ जाता है। और वह कर्म और भाग्य को जोड़ता हुआ अपने कर्तव्य पथ में लगा रहता है एक मस्त फ़कीर की भाँति। न ऊधो से लेना, न माधव को देना।