आनंद

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आनंद अंत:मन की एक विशेष स्थिति है। इस पर वाह्य स्थितियों का प्रभाव नहीं पड़ता । आनंद एक ऐसी अनुभूति है, जो न वाह्य परिस्थितियों द्वारा उत्पन्न होती है और न ही प्रतिकूल वाह्य परिस्थितियाँ उसके एहसास और उसकी तीव्रता को प्रभावित कर पाती हैं। यह बात दीगर है कि आनंद की अनुभूति क्षणिक है अथवा चिरस्थायी, किन्तु जो क्षण भी आनंद की अनुभूति से प्लावित होते हैं उनमें व्यक्ति सांसारिक और मानसिक क्लेशों से बहुत ऊपर उठकर जीवन के उन सुखद क्षणों से साकार होता है, जिन्हें वह सामान्यतः स्वप्न अवस्था में समीप से जी सकता है।

मनोवैज्ञानिकों ने आनंदित अवस्था के लिए संतुष्टि, सफलता, आकांक्षाओं का फलीभूत होना, मनचाहा सबकुछ मिल जाना आदि परिस्थितियों को सहायक के रूप में स्वीकार किया है। लेकिन ऐसे भी व्यक्तियों की कमी नहीं है जिनका कोई भी सपना पूरा नहीं होता, फिर भी वह आनंदित रहते हैं, क्योंकि संवेदना भौतिक सफलता और असफलता से विलग रहती है। वह आस्तिकता, ईश-निष्ठा और कर्मशीलता के मध्य अपनी संवेदनाओं को फलित होते देखते हैं। सबके बीच होकर भी वह सबसे अलग ऊँचे आकाश में विचरण करते हैं। उनका मन सागर की आनंद लहरों में डूबा रहता है। कभी-कभी आनंद की सीमा इस पराकाष्ठा तक पहुँच जाती है कि उन्हें अपने नश्वर शरीर पर होने वाले आघातों का भी एहसास नहीं होता।

जैसे संत बाल्मीकि को तपस्या के आनंद सागर में डूबने के बाद उनके शरीर पर चीटिंयों द्वारा बांबी बनाये जाने का भी आभास नहीं हुआ। यही आनंद की शक्ति और उसकी सीमा है। जिस प्रकार सूर्य के प्रकाश को कोई ढक नहीं सकता उसी प्रकार आनंद सागर में गोते लगते मन को कोई दुखी नहीं कर सकता। आनंद की इस सीमा को प्राप्त करने के लिए भावनाओं की अतल गहराइयों में डूबना होगा। लौकिक आकर्षण और विकर्षण से दूर पारलौकिक संसार में चरण रखना होगा। जीवन को व्यवसायिकता से दूर परमार्थ और मानवता की ओर मोड़ना होगा तभी शाश्वत आनंद और सुख का अनुभव होगा। महाकवि जयशंकर प्रसाद के शब्दों में- ”औरों को हँसते देखो, मन-हँसो और सुख पाओ, आने सुख को विस्तृत कर लो, सबको सुखी बनाओ।”

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