अभिमान

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अभिमान चारित्रिक गुण है या दोष- यह कहना कठिन है। इतना अवश्य कहा जा सकता है कि अपने ही दोषों को ढाँकने के लिए प्रयुक्त मुखावरण है। यह क्षणभंगुर है। पराभव के द्वार खोलता है। अभिमानी व्यक्ति स्वयं को कितना ही श्रेष्ठ और लोकप्रिय क्यों ना समझता हो किंतु वास्तविकता यह है कि उसे कोई स्नेह नहीं करता।

”अभिमानी नाहर बड़ो, मरमत फिरत उजारि।
सहजो नन्हीं बाकरी, प्यार करे संसार।।”
समाज सहज व्यक्तियों को ही प्यार करता है। उनकी श्रेष्ठता को स्वतः स्वीकार करता है। उनकी सफलता का मार्ग भी प्रशस्त करता है। अभिमानी व्यक्ति स्वयं को ही खा जाता है।
नीच नीच सब तरि गये, संत-चरण लौलीन।
जातिहि के अभिमान ते डूबे बहुत कुलीन।।

अभिमान 9 प्रकार का माना गया है- सत्ता का अभिमान, संपत्ति का अभिमान, बल का अभिमान, कुल का अभिमान, रूप का अभिमान, विद्वता का अभिमान, अनुभव का अभिमान, कर्तव्य का अभिमान और चारित्र्य का अभिमान। किंतु इन सबसे बड़ा भी एक अभिमान है। वह यह है कि मुझे कोई अभिमान नहीं है। आपसी बातचीत में लोग दावा करते हैं कि उन्हें किसी प्रकार का घमंड या अभिमान नहीं है। उनका यह सोचना ही उनका सबसे बड़ा अभिमान है। सबसे भयानक अभिमान है। यह उन्हें कहीं का नहीं छोड़ता। यही बात उनके लिए कोई अन्य व्यक्ति कहे तो गर्व की बात है। स्वयं अपने को सहज बताना असहजता और गर्व का प्रतीक है। यह अभिमान व्यक्ति का सर्वनाश कर देता है।

जरा रूपं हरित धैर्यमाशा
मृत्यु प्रणानं धर्मचार्यमसूया
कामो हियँ वृत्तमनार्थसेवा
क्रोध: श्रियं सर्वमेवाभिमान:।।

अर्थात वृद्धावस्था रूप का, आशा धैर्य का, मृत्यु प्रमाण का, दूसरों में दोष दृष्टि धर्माचरण का, काम लज्जा का, नीच पुरुषों की सेवा सदाचार का, क्रोध लक्ष्मी का और अभिमान सर्वस्य का ही नाश कर देता है।
समझदार, विद्वान एवं ज्ञानी व्यक्ति अभिमान रूपी घोड़े पर सदैव नकेल कसे रहते हैं। अभिमान का दंश तो अकुलीन मनुष्य के राजा होने पर, मूर्ख का पुत्र पंडित बनने पर तथा निर्धन को धन प्राप्ति पर सताता है। यह सभी संपूर्ण विश्व को त्रणवत समझने लगते हैं।

अंवरपतितो राजा मूर्खपुत्रश्च पंडित:।
अधनी ही धनं प्राप्य तृणवन्मन्यते जगत।।

बुद्धिमान व्यक्ति समझता है कि संसार में फैले हुए मोह रूपी बादल में अभिमान, बिजली की कौंध के समान है। इसलिए वह अभिमान के स्पर्श से दूर रहता है। वह समझता है कि कुल संबंध अस्थिर है, विद्या सदा ही विवाद पूर्ण है और धन क्षण में ही नष्ट हो हो जाने वाला है। इसलिए वह मोह जनक वस्तुओं पर मिथ्याभिमान से बचता है। वह उस वासुकिनाग के समान होता है जो सहस्र गुना अधिक विष होने पर भी गर्व नहीं करता जबकि केवल एक बूंद विष धारण करने पर बिच्छू अपनी दुम उठा कर अभिमान पूर्वक चलता है।

अभिमानी व्यक्ति टिटिटभ पक्षी की भांति होते हैं जो आकाश को टूट कर गिर पड़ने से रोकने के लिए अपने पैर ऊपर उठाए रहता है और भ्रम में रहता है कि आकाश उसी के पैरों से डरकर ऊपर जमा है नीचे नहीं गिर रहा है।
अभिमानी व्यक्ति के लिए प्रसिद्ध साहित्यकार जयशंकर प्रसाद ने कहा है कि भूला हुआ लौट आता है, खोया हुआ मिल जाता है परंतु जो जानबूझकर भूल भुलैया तोड़ने के अभिमान में उसमें घुसता है, वह चक्रव्यू में स्वयं मरता है और दूसरों को भी मारता है। वह मेढक की भांति कमल पत्र के नीचे पहुंचकर स्वयं को दण्ड धारी समझता है।

महाकवि कण्हपा कहते हैं कि व्यर्थ ही मनुष्य गर्व में डूबा रहता है और समझता है कि मैं परमार्थ में प्रवीण हूँ। करोड़ों में से कोई एक निरंजन में लीन होता है। आगम वेद पुराणों से पंडित अभिमानी बनते हैं। किंतु वह पके श्रीफल के बाहर ही बाहर चक्कर काटने वाले भौंरों के समान आगम आदि के बाह्य अर्थों में ही उलझे रहते हैं।

फारसी के कवि हाफिज के शब्दों में-
ऐ तबगर मफरोश ई हमा नखवत कि तुरा
सरदरी दरकाफे हिम्मते दरवेशॉस्त।।

हे धनवान तेरा यह अभिमान व्यर्थ है। तेरा अभ्युदय और पतन तो सब साधुओं के आशीर्वाद पर निर्भर है।

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