आशा और भय का गहरा संबंध है। भय आशा की जननी है। बिना भय के आशा का कोई अस्तित्व नहीं। दूसरी ओर आशा के अभाव में भय से त्राण नहीं। वस्तुतः भय मानव मन में आशा की अलख जगाता है और आशा व्यक्ति को भय से मुक्ति दिलाती है। आशा, भय पीड़ित व्यक्तियों का जीवन संबल बनकर उन्हें विश्वास दिलाती है कि आज नहीं तो कल एक नई सुबह आएगी। खुशियां लाएगी। जीवन को नई दिशा दिखाएगी। किन्तु यह स्थिति परिवर्तन व्यक्ति के अपने बुद्धि कौशल से होगा यह दयानिधि की कृपा से । एक दीगर बात है। महाकवि मैथिलीशरण गुप्त के लिए-
अनुकूल अवसर पर दयामय फिर दया दिखलाएंगे।
वे दिन यहां फिर आएंगे, फिर आएंगे, फिर आएंगे।।
शरदचंद्र भय जनित दुख और आशा के संबंधों को स्पष्ट करते हैं। उनके अनुसार दुख में जब मनुष्य को आशा और निराशा का कोई किनारा नहीं दिखाई देता, तब दुर्बल मन डर के मारे आशा की दिशा को ही खूब कस कर पकड़े रहता है।
शेक्सपियर भी कहते हैं, “द. मिजरएबेल हैव नो अदर मेडिसिन बट ओनली होप” दुखी व्यक्ति के पास आशा के अतिरिक्त और कोई औषधि नहीं होती है। आशा औषधि इन का एकमात्र सहारा है। दुखी व्यक्ति है सोच कर दुखी की वैतरणी पार कर लेता है कि “इफ विंटर कम्स, कैन स्प्रिंग बी फार बिहाइंड।” यदि शीत ऋतु आ गई है तो क्या बसंत ऋतु अधिक दूर रह सकती है? जवाब है कदापि नहीं। और यही जवाब दुखी व्यक्ति का सहारा है। उसका संबल है जिसके सहारे वह अंधेरों को चीरने की सामर्थ्य उठा पाता है।
मनुष्य को सदा आशावान रहना चाहिए। उन्हें कभी निराश नहीं होना चाहिए। आशा चिरंजीवी है। वह कभी मरती नहीं। वह सांस के साथ ही थमती है। अन्यथा जब तक सांस रहती है आशा भी व्यक्ति के साथ रहती है। भले ही शरीर गल जाए, मौत सामने खड़ी हो, किंतु मानव मन में आशा का अंत नहीं होता। यही चिरंजीवी आशा व्यक्ति में इच्छाशक्ति को जन्म देती है और व्यक्ति कठिनाइयों के तूफानों का सामना करता रहता है। कभी वह विजय प्राप्त करता है तो कभी हार। दोनों ही नियति चक्र से बंधे हैं।
भला आशा से क्या नहीं किया जा सकता? लेकिन आशा की शक्ति मर्यादित रहे वही उचित है। बेकन के अनुसार आशा जलपान के रूप में तो अच्छी है। लेकिन भोजन के रूप में ठीक नहीं। “होप इज गुड ब्रेकफास्ट बट इट इज ए बैड सपर।” पंडित सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ के लिए पेट जितना भी भरा रहे, आशा कभी नहीं मरती। वह जीवों को कोई अप्राप्य, कुछ नहीं तो केवल रंगों की माया का इंद्रधनुष प्राप्त करने के मायावी दलदल में फंसा ही रहती है।
भर्तहरि के अनुसार आशा सरिता है। मनोरथ जल से भरी है। उसमें तृष्णा रूपी तरंगें उठ रही हैं। राग रूपी ग्राह है। वितर्क रूपी पक्षी है। यह नदी धैर्य रूपी वृक्ष को उखाड़ फेंकने वाली है। इसमें अज्ञान रूपी भँवर है। भी अति गहन है। उसके पार जाना कठिन है। उसके चिंता रूपी तट बहुत ऊंचे हैं। उसके पार जाकर विशुद्ध मन वाले योगीराज ही आनंदित होते हैं।
विद्वान आशा रहित होने को ही परम सुख की पराकाष्ठा मानते हैं उनके लिए आशा ही राक्षसी है। विष मंजरी है। जीर्ण मदिरा है। जो आशा के दास हैं वे संपूर्ण लोग के दास हैं इसके विपरीत जो आशा पर विजय प्राप्त कर लेते हैं, और आशा उनकी दासी बन जाती है उनका दास संपूर्ण जगत हो जाता है।
आशाया ये दासास्ते दासा: सर्वलोकस्य
आशा येषां दासी तेषां दासायते लोका: ।
हाफिज कहते हैं आशाओं के भवन की नींव बहुत कमजोर है। उसकी दीवारें क्षण भर में गिर सकती हैं।
कुछ भी हो इतना अवश्य है कि आशा मनुष्यों की आश्चर्य मई श्रंखला है। इससे बंधे हुए लोग दौड़ लगाते हैं। इससे मुक्त व्यक्ति पंगु के समान स्थिर बने रहते हैं। इसलिए मनुष्य को चाहिए कि वह आशावान रहे। निराश ना हो। आशा न केवल अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ के लिए अपितु सभी मनुष्यों के ‘हृदय-मरु’ की मंजू मंदाकिनी है।