तुम और मैं

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तुम उत्तुंग पाषाण गिरि.
और मैं उस में बहती सरिता,

तुम तप्त दिवस के सूर्य..
और मैं हूँ विहान की धूप,

तुम स्पंदन और मैं श्वास।

तुम लक्ष्य को जाते दुरूह पथ..
और मैं तरु की शीतल छाँह
.
तुम अनंत सागर विस्तृत ..
और मैं हूँ गहरी थाह ,

तुम शब्द और मैं विचार ।

तुम बरसों के बीते बिछोह ..
और मैं हूँ पिछली पहचान ,

तुम कल्पना के विस्तृत सूत्र..
और मैं हूँ, यथार्थ की गाँठ,

तुम रूप और मैं लावण्य ।

तुम हो स्तुति के शंखनाद..
मैं हूँ हृदय में बसती श्रद्धा

तुम हो गूँजते अट्टहास ..
और मैं हूँ तिरछी मुस्कान ,

तुम योग हो और मैं हूँ शांति..।

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